Sunday, November 1, 2015

सिंहासन बत्तीसी - 5

एक बार दो आदमी आपस में झगड़ रहे थे। एक कहता था कि तकदीर बड़ी है, दूसरा कहता था कि पुरुषार्थ बड़ा है। जब किसी तरह मामला न निबटा तो वे इन्द्र के पास गये। इन्द्र ने उन्हें विक्रमादित्य के पास भेज दिया। राजा ने उनकी बात सुनी और कहा कि छ: महीने बाद आना। इसके बाद राजा ने किया क्या कि भेस बदलकर स्वयं यह देखने निकल पड़ा कि तकदीर और पुरुषार्थ में कौन बड़ा हैं। घूमते-घूमते उसे एक नगर मिला। विक्रमादित्य उस नगर के राजा के पास पहुंचा और एक लाख रूपये रोज पर उसके यहां नौकर हो गया। उसने वचन दिया कि जो काम और कोई नहीं कर सकेगा, उसे वह करेगा, उसे वह करेगा। एक बार की बात है कि उस नगर की राजा बहुत-सा सामान जहाज पर लादकर किसी देश को गया। विक्रमादित्य साथ में था। अचानक बड़े जोर का तूफान आया। राजा ने लंगर डलवाकर जहाज खड़ा कर दिया। जब तुफान थम गया तो राजा ने लंगर उठाने को कहा, लेकिन लंगर उठा ही नहीं। इस पर राजा ने विक्रमादित्य से कहा, "अब तुम्हारी बारी है।" विक्रमादित्य नीचे उतरकर गया और भाग्य की बात कि उसके हाथ लगाते ही लंगर उठ गया, लेकिन उसके चढ़ने से पहले ही जहाज पानी और हवा की तेजी से चल पड़ा।

विक्रमादित्य बहते-बहते किनारे लगा। उसे एक नगर दिखाई दिया। ज्योहीं वह नगर में घुसा, देखता क्या है, चौखट पर लिखा है कि यहां की राजकुमारी सिंहवती का विवाह विक्रमादित्य के साथ होगा। राजा को बड़ा अचरज हुआ। वह महल में गया। अंदर सिंहवती पलंग पर सो रही थी। विक्रमादित्य वहीं बैठ गया। उसने उसे जगाया। वह उठ बैठी और विक्रमादित्य का हाथ पकड़कर दोनों सिंहासन पर जा बैठे। उनका, विवाह हो गया।

उन्हें वहां रहते–रहते काफी दिन बीत गये। एक दिन विक्रमादित्य को अपने नगर लौटने क विचार आया और अस्तबल में से एक तेज घोड़ी लेकर रवाना हो गया। वह अवन्ती नगर पहुंचा। वहां नदी के किनारे एक साधु बैठा था। उसने राजा को फूलों की एक माला दी और कहा, "इसे पहनकर तुम जहां जाओंगे, तुम्हें फतह मिलेगी। दूसरे, इसे पहनकर तुम सबको देख सकोगे, तुम्हें कोई भी नही देख सकेगा।" उसने एक छड़ी भी दी। उसमें यह गुण था कि रात को सोने से पहले जो भी जड़ाऊ गहना उससे मांगा जाता, वही मिल जाता।

दोनों चीजों को लेकर राजा उज्जैन के पास पहुंचा। वहां उसे एक ब्राह्यण और एक भाट मिले। उन्होंने राजा से कहा, "हे राजन् ! हम इतने दिनों से तुम्हारे द्वार पर सेवा कर रहे हैं, फिर भी हमें कुछ नहीं मिला।" यह सुनकर राजा ने ब्राह्यण को छड़ी दे दी और भाट को माला। उनके गुण भी उन्हें बता दिये। इसके बाद राजा अपने महल में चला गया।

छ: महीने बीत चुके थे। सो वही दोनों आदमी आये, जिनमें पुरुषार्थ और भाग्य को लेकर झगड़ा हो रहा था। राजा ने उनकी बात का जवाब देते हुए कहा, "सुनो भाई, दुनिया में पुरुषार्थ के बिना कुछ नहीं हो सकता। लेकिन भाग्य भी बड़ा बली है।" दोनो की बात रह गई। वे खुशी-खुशी अपने अपने घर चले गये।

इतना कहकर पुतली बोली, "हे राजन् ! तुम विक्रमादित्य जैसे तो सिंहासन पर बैठों।"

उस दिन का, मुहूर्त भी निकल गया। अगले दिन राजा सिंहासन की ओर बढ़ा तो कामकंदला नाम की छठी पुतली ने उसे रोक लिया। बोली, " पहले मेरी बात सुनो।"

मोटेराम जी शास्त्री

 

पण्डित मोटेराम जी शास्त्री को कौन नही जानता! आप अधिकारियों का रुख देखकर काम करते है। स्वदेशी आन्दोलनों के दिनों मे आपने उस आन्दोलन का खूब विरोध किया था। स्वराज्य आन्दोलन के दिनों मे भी अपने अधिकारियों से राजभक्ति की सनद हासिल की थी। मगर जब इतनी उछल-कूद पर उनकी तकदीर की मीठी नींद न टूटी, और अध्यापन कार्य से पिण्ड न छूटा, तो अन्त मे अपनी एक नई तदबीर सोची। घर जाकर धर्मपत्नी जी से बोले—इन बूढ़े तोतों को रटाते-रटाते मेरी खोपड़ी पच्ची हुई जाती है। इतने दिनों विद्या-दान देने का क्या फल मिला जो और आगे कुछ मिलने की आशा करुं।

धर्मपत्नि ने चिन्तित होकर कहा—भोजन का भी तो कोई सहारा चाहिए।

मोटेराम—तुम्हें जब देखो, पेट ही की फ्रिक पड़ी रहती है। कोई ऐसा विरला ही दिन जाता होगा कि निमन्त्रण न मिलते हों, और चाहे कोई निन्दा करें, पर मैं परोसा लिये बिना नहीं आता हूं। आज ही सब यजमान मरे जाते है? मगर जन्म-भर पेट ही जिलाया तो क्या किया। संसार का कुछ सुख भी तो भोगना चाहिए। मैंने वैद्य बनने का निश्चय किया है।

स्त्री ने आश्चर्य से कहा—वैद्य बनोगे, कुछ वैद्यकी पढ़ी भी है?

मोटे—वैद्यकी पढने से कुछ नही होता, संसार मे विद्या का इतना महत्व नही जितना बुद्धि क। दो-चार सीधे-सादे लटके है, बस और कुछ नही। आज ही अपने नाम के आगे भिष्गाचार्य बढ़ा लूंगा, कौन पूछने आता है, तुम भिषगाचार्य हो या नहीं। किसी को क्या गरज पड़ी है जो मेरी परिक्षा लेता फिरे। एक मोटा-सा साइनबोर्ड बनवा लूंगा। उस पर शब्द लिखें होगे—यहा स्त्री पुरूषों के गुप्त रोगों की चिकित्सा विशेष रूप से की जाती है। दो-चार पैसे का हउ़-बहेड़ा-आवंला कुट छानकर रख लूंगा। बस, इस काम के लिए इतना सामान पर्याप्त है। हां, समाचारपत्रों मे विज्ञापन दूंगा और नोटिस बटवाऊंगा। उसमें लंका, मद्रास, रंगून, कराची आदि दूरस्थ स्थानों के सज्जनों की चिटिठयां दर्ज की जाएंगी। ये मेरे चिकित्सा-कौशल के साक्षी होगें जनता को क्या पड़ी है कि वह इस बात का पता लगाती फिरे कि उन स्थानों मे इन नामों के मनुष्य रहते भी है, या नहीं फिर देखो वैद्यकी कैसी चलती है।

स्त्री—लेकिन बिना जाने-बूझ दवा दोगे, तो फायदा क्या करेगी?

मोटे—फायदा न करेगी, मेरी बला से। वैद्य का काम दवा देना है, वह मृत्यु को परास्त करने का ठेका नही लेता, और फिर जितने आदमी बीमार पड़ते है, सभी तो नही मर जाते। मेरा यह कहना है कि जिन्हें कोई औषधि नही दी जाती, वे विकार शान्त हो जाने पर ही अच्छे हो जाते है। वैद्यों को बिना मांगे यश मिलता है। पाँच रोगियों मे एक भी अच्छा हो गया, तो उसका यश मुझे अवश्य ही मिलेगा। शेष चार जो मर गये, वे मेरी निन्दा करने थोडे ही आवेंगे। मैने बहुत विचार करके देख लिया, इससे अच्छा कोई काम नही है। लेख लिखना मुझे आता ही है, कवित्त बना ही लेता हूं, पत्रों मे आयुर्वेद-महत्व पर दो-चार लेख लिख दूंगा, उनमें जहां-तहां दो-चार कवित्त भी जोड़ दूंगा और लिखूगां भी जरा चटपटी भाषा मे । फिर देखो कितने उल्लू फसते है यह न समझो कि मै इतने दिनो केवल बूढे तोते ही रटाता रहा हूं। मै नगर के सफल वैद्यो की चालों का अवलोकन करता रहा हूँ और इतने दिनों के बाद मुझे उनकी सफलता के मूल-मंत्र का ज्ञान हुआ है। ईश्वर ने चाहा तो एक दिन तुम सिर से पांव तक सोने से लदी होगी।

स्त्री ने अपने मनोल्लास को दबाते हुए कहा—मै इस उम्र मे भला क्या गहने पहनूंगी, न अब वह अभिलाषा ही है, पर यह तो बताओं कि तुम्हें दवाएं बनानी भी तो नही आती, कैसे बनाओगे, रस कैसे बनेगें, दवाओ को पहचानते भी तो नही हो।

मोटे—प्रिये! तुम वास्तव मे बड़ी मूर्ख हो। अरे वैद्यो के लिए इन बातों मे से एक भी आवश्यकता नही, वैद्य की चुटकी की राख ही रस है, भस्म है, रसायन है, बस आवश्यकता है कुछ ठाट-बाट की। एक बड़ा-सा कमरा चाहिए उसमें एक दरी हो, ताखों पर दस-पांच शीशीयां बोतल हो। इसके सिवा और कोई चीज दरकार नही, और सब कुछ बुद्धि आप ही आप कर लेती है। मेरे साहित्य-मिश्रित लेखों का बड़ा प्रभाव पड़ेगा, तुम देख लेना। अलंकारो का मुझे कितना ज्ञान है, यह तो तुम जानती ही हो। आज इस भूमण्डल पर मुझे ऐसा कोई नही दिखता जो अलंकारो के विषय मे मुझसे पेश पा सके। आखिर इतने दिनों घास तो नही खोदी है! दस-पाँच आदमी तो कवि-चर्चा के नाते ही मेरे यहां आया जाया करेगें। बस, वही मेरे दल्लाह होंगे। उन्ही की मार्फत मेरे पास रोगी आवेंगे। मै आयुर्वेद-ज्ञान के बल पर नहीं नायिका-ज्ञान के बल पर धड़ल्ले से वैद्यक करूंगा, तुम देखती तो जाओ।

स्त्री ने अविश्वास के भाव से कहा—मुझे तो डर लगता है कि कही यह विद्यार्थी भी तुम्हारे हाथ से न जाए। न इधर के रहो ने उधर के। तुम्हारे भाग्य मे तो लड़के पढ़ाना लिखा है, और चारों ओर से ठोकर खाकर फिर तुम्हें वही तोते रटाने पडेंगे।

मोटे—तुम्हें मेरी योग्यता पर विश्वास क्यों नही आता?

स्त्री—इसलिए कि तुम वहां भी धूर्तता करोगे। मै तुम्हारी धूर्तता से चिढ़ती हूँ। तुम जो कुछ नहीं हो और नहीं हो सकते,वह क्यों बनना चाहते हो? तुम लीडर न बन सके, न बन सके, सिर पटककर रह गये। तुम्हारी धूर्तता ही फलीभूत होती है और इसी से मुझे चिढ़ है। मै चाहती हूं कि तुम भले आदमी बनकर रहो। निष्कपट जीवन व्यतीत करो। मगर तुम मेरी बात कब सुनते हो?

मोटे—आखिर मेरा नायिका-ज्ञान कब काम आवेगा?

स्त्री—किसी रईस की मुसाहिबी क्यो नही कर लेते? जहां दो-चार सुन्दर कवित्त सुना दोगे। वह खुश हो जाएगा और कुछ न कुछ दे ही मारेगा। वैद्यक का ढोंग क्यों रचते हो !

मोटे—मुझे ऐसे-ऐसे गुर मालूम है जो वैद्यो के बाप-दादों को भी न मालूम होगे। और सभी वैद्य एक-एक, दो-दो रूपये पर मारे-मारे फिरते है, मै अपनी फीस पांच रूपये रक्खूंगा, उस पर सवारी का किराया अलग। लोग यही समझेगें कि यह कोई बडे वैद्य है नही तो इतनी फीस क्यों होती?

स्त्री को अबकी कुछ विश्वास आया बोली—इतनी देर मे तुमने एक बात मतलब की कही है। मगर यह समझ लो, यहां तुम्हारा रंग न जमेगा, किसी दूसरे शहर को चलना पड़ेगा।

मोटे—(हंसकर) क्या मै इतना भी नही जानता। लखनऊ मे अडडा जमेगा अपना। साल-भर मे वह धाक बांध दू कि सारे वैद्य गर्द हो जाएं। मुझे और भी कितने ही मन्त्र आते है। मै रोगी को दो-तीन बार देखे बिना उसकी चिकित्सा ही न करूंगा। कहूंगा, मै जब तक रोगी की प्रकृति को भली भांति पहचान न लूं, उसकी दवा नही कर सकता। बोलो, कैसी रहेगी?

स्त्री की बांछे खिल गई, बोली—अब मै तुम्हे मान गई, अवश्य चलेगी तुम्हारी वैद्यकी, अब मुझे कोई संदेह नही रहा। मगर गरीबों के साथ यह मंत्र न चलाना नही तो धोखा खाओगे।

2

साल भर गुजर गया।

भिषगाचार्य पण्डित मोटेराम जी शास्त्री की लखनऊ मे धूम मच गई। अलंकारों का ज्ञान तो उन्हे था ही, कुछ गा-बजा भी लेते थे। उस पर गुप्त रोगो के विशेषज्ञ, रसिको के भाग्य जागें। पण्डित जी उन्हें कवित सुनाते, हंसाते, और बलकारक औषधियां खिलाते, और वह रईसों मे, जिन्हें पुष्टिकारक औषधियों की विशेष चाह रहती है, उनकी तारीफों के पुल बांधते। साल ही भर मे वैद्यजी का वह रंग जमा, कि बायद व शायद गुप्त रोगों के चिकित्सक लखनऊ मे एकमात्र वही थे। गुप्त रूप से चिकित्सा भी करते। विलासिनी विधवारानियों और शौकीन अदूरदर्शी रईसों में आपकी खूब पूजा होने लगी। किसी को अपने सामने समझते ही न थे।

मगर स्त्री उन्हे बराबर समझाया करती कि रानियों के झमेलें मे न फंसों, नहीं किसी दिन पछताओगे।

मगर भावी तो होकर ही रहती है, कोई लाख समझाये-बुझाये। पंडितजी के उपासको मे बिड़हल की रानी भी थी। राजा साहब का स्वर्गवास हो चुका था, रानी साहिबा न जाने किस जीर्ण रोग से ग्रस्त थी। पण्डितजी उनके यहां दिन मे पांच-पांच बार जाते। रानी साहिबा उन्हें एक क्षण के लिए भी देर हो जाती तो बेचैन हो जाती, एक मोटर नित्य उनके द्वार पर खड़ी रहती थी। अब पण्डित जी ने खूब केचुल बदली थी। तंजेब की अचकन पहनते, बनारसी साफा बांधते और पम्प जूता डाटते थे। मित्रगण भी उनके साथ मोटर पर बैठकर दनदनाया करते थे। कई मित्रों को रानी सहिबा के दरबार मे नौकर रखा दिया। रानी साहिबा भला अपने मसीहा की बात कैसी टालती।

मगर चर्खे जफाकार और ही षययन्त्र रच रहा था।

एक दिन पण्डितजी रानी साहिबा की गोरी-गोरी कलाई पर एक हाथ रखे नब्ज देख रहे थे, और दूसरे हाथ से उनके हृदय की गति की परिक्षा कर रहे थे कि इतने मे कई आदमी सोटै लिए हुए कमरे मे घुस आये और पण्डितजी पर टूट पड़े। रानी भागकर दूसरे कमरे की शरण ली और किवाड़ बन्द कर लिए। पण्डितजी पर बेभाव पड़ने लगे। यों तो पण्डितजी भी दमखम के आदमी थे, एक गुप्ती सदैव साथ रखते थे। पर जब धोखे मे कई आदमियों ने धर दबाया तो क्या करते? कभी इसका पैर पकड़ते कभी उसका। हाय-हाय! का शब्द मुंह से निकल रहा था पर उन बेरहमों को उन पर जरा भी दया न आती थी, एक आदम ने एक लात जमाकर कहा—इस दुष्ट की नाक काट लो।

दूसरा बोला—इसके मुंह मे कलिख और चूना लगाकर छोड़ दो।

तीसरा—क्यों वैद्यजी महाराज, बोलो क्या मंजूर है? नाक कटवाओगे या मुंह मे कालिख लगवाओगें?

पण्डित—भूलकर भी नही सरकार। हाय मर गया!

दूसरा—आज ही लखनऊ से रफरैट हो जाओं नही तो बुरा होगा।

पणिडत—सरकार मै आज ही चला जाऊगां। जनेऊ की शपथ खाकर कहता हूं। आप यहां मेरी सूरत न देखेंगे।

तीसरा—अच्छा भाई, सब कोई इसे पांच-पांच लाते लगाकर छोड़ दो।

पण्डित—अरे सरकार, मर जाऊंगा, दया करो

चौथा—तुम जैसे पाखंडियो का मर जाना ही अच्छा है। हां तो शुरू हो।

पंचलत्ती पड़ने लगी, धमाधम की आवाजें आने लगी। मालूम होता था नगाड़े पर चोट पड़ रही है। हर धमाके के बाद एक बार हाय की आवाज निकल आती थी, मानों उसकी प्रतिध्वनि हो।

पंचलत्ती पूजा समाप्त हो जाने पर लोगों ने मोटेराम जी को घसीटकर बाहर निकाला और मोटर पर बैठाकर घर भेज दिया, चलते-चलते चेतावनी दे दी, कि प्रात:काल से पहले भाग खड़े होना, नहीं तो और ही इलाज किया जाएगा।

मोटेराम जी लंगड़ाते, कराहते, लकड़ी टेकते घर मे गए और धम से गिर पड़े चारपाई पर गिर पडे। स्त्री ने घबराकर पूछा—कैसा जी है? अरे तुम्हारा क्या हाल है? हाय-हाय यह तुम्हारा चेहरा कैसा हो गया!

मोटे—हाय भगवान, मर गया।

स्त्री—कहां दर्द है? इसी मारे कहती थी, बहुत रबड़ी न खाओं। लवणभास्कर ले आऊं?

मोटे—हाय, दुष्टों ने मार डाला। उसी चाण्डालिनी के कारण मेरी दुर्गति हुई । मारते-मारते सबों ने भुरकुस निकाल दिया।

स्त्री—तो यह कहो कि पिटकर आये हो। हां, पिटे हो। अच्छा हुआ। हो तुम लातो ही के देवता। कहती थी कि रानी के यहां मत आया-जाया करो। मगर तुम कब सुनते थे।

मोटे—हाय, हाय! रांड, तुझे भी इसी दम कोसने की सूझी। मेरा तो बुरा हाल है और तू कोस रही है। किसी से कह दे, ठेला-वेला लावे, रातो-रात लखनऊ से भाग जाना है। नही तो सबेरे प्राण न बचेंगे।

स्त्री—नही, अभी तुम्हारा पेट नही भरा। अभी कुछ दिन और यहां की हवा खाओ! कैसे मजे से लड़के पढाते थे, हां नहीं तो वैद्य बनने की सूझी। बहुत अच्छा हुआ, अब उम्र भर न भूलोगे। रानी कहां थी कि तुम पिटते रहे और उसने तुम्हारी रक्षा न की।

पण्डित—हाय, हाय वह चुडैल तो भाग गई। उसी के कारण । क्या जानता था कि यह हाल होगा, नहीं ता उसकी चिकित्सा ही क्यों करता?

स्त्री—हो तुम तकदीर के खोटे। कैसी वैद्यकी चल गई थी। मगर तुम्हारी करतूतों ने सत्यनाश मार दिया। आखिर फिर वही पढौनी करना पड़ी। हो तकदीर के खोटे।

प्रात:काल मोटेराम जी के द्वार पर ठेला खड़ा था और उस पर असबाब लद रहा था। मित्रो में एक भी नजर न आता था। पण्डित जी पड़े कराह रहे थे ओर स्त्री सामान लदवा रही थी।

—मुंशी प्रेमचंद ‘माधुरी’ जनवरी, १९२८

Tuesday, September 29, 2015

शराब की दूकान

कॉँग्रेस-कमेटी में यह सवाल पेश था-शराब और ताड़ी की दूकानों पर कौन धरना देने जाय? कमेटी के पच्चीस मेम्बर सिर झुकाए बैठे थे; पर किसी के मुह से बात न निकलती थी। मुआमला बड़ा नाजुक था। पुलिस के हाथों गिरफ्तार हो जाना तो ज्यादा मुश्किल बात न थी। पुलिस के कर्मचारी अपनी जिम्मेदारियों को समझते हैं। चूंकि अच्छे और बुरे तो सभी जगह होते हैं, लेकिन पुलिस के अफसर, कुछ लोगों को छोड़ कर, सभ्यता से इतने खाली नहीं होते कि जाति और देश पर जान देनेवालों के साथ दुर्व्यवहार करें; लेकिन नशेबाजों में यह जिम्मेदारी कहॉँ? उनमें तो अधिकांश ऐसे लोग होते हैं, जिन्हें थुड़की-धमकी के सिवा और किसी शक्ति के सामने झुकने की आदत नहीं। मारपीट से नशा हिरन हो सकता है; पर शांतवादियों के लिए तो वह दरवाजा बंद है; तब कौन इस ओखली मे सिर दे, कौन पियक्कड़ों की गालियॉँ खाय? बहुत सभ्भव है कि वे हाथापाई पर बैठें। उनके हाथों पिटना किसे मंजूर हो सकता था? फिर पुलिस वाले भी बैठे तमाशा न देखेंगे। उन्हें और भी भड़काते रहैगे। पुलिस की शह पर ये नशे के बंदे जो कुछ न करे डालें, वह थोड़ा! ईंट का जवाब पत्थर से दे नहीं सकते और इस समुदाय पर विनती का कोई असार नहीं!

एक मेम्बर ने कहा-मेरे विचार मे तो इन जातों में पंचायतों को फिर सँभालना चाहिए। इधर लापरवाही से उनकी पंचायतें निर्जीव हो गई हैं। इसके सिवा मुझे तो और भी कोई उपाया नहीं सूझता।

सभापति ने कहा-हाँ, यह एक उपाय है। मैं इसे नोट किए लेता हूँ, पर धरना देना जरूरी है।

दूसरे महाशय बोले-उनके घरों पर जाकर समझाया जाए, तो अच्छा असर होगा।

सभापति ने अपनी चिकनी खोपड़ी सहलाते हुए कहा-यह भी अच्छा

उपाय है; मगर धरने को हम लोग त्याग नहीं सकते।

फिर सन्नाटा हो गया।

पिछली कतार में एक देवी भी मौन बैठी हुई थी। जब कोई मेम्बर बोलता वह एक नजर उसकी तरफ डालकर फिर सिर झुका लेतीथीं। यही कॉँग्रेस की लेडी मेम्बर थीं। उनके पति महाशय जी० पी० सकसेना कॉँग्रेस के अच्छे काम करने वालों में थे। उनका देहांत हुए तीन साल हो गए थे। मिसेज सकसेना ने इधर एक साल से कॉँग्रेस के कामों में भाग लेना शुरू कर दिया था और कॉँग्रेस-कमेटी ने उन्हें अपना मेम्बर चुन लिया था। वह शरीफ घरानों में जाकर स्वदेशी और खद्दर का प्रचार करती थीं। जब कभी कॉँग्रेस के प्लेटफार्म पर बोलने खड़ी होतीं तो उनका जोश देखकर ऐसा मालूम होता था, आकाश में उड़ जाना चाहती हैं। कुंदन का-सा रंग लाल हो जाता था, बड़ी-बड़ी करूण ऑंखें जिनमें जल भरा हुआ मालूम होता था, चमकने लगती थीं। बड़ी खुश मिजाज और इसके साथ बला की निर्भीक स्त्री थीं। दबी हुई चिनगारी थी, जो हवा पाकर दहक उठती है। उसके मामूली शब्दों में इतना आकर्षण कहॉँ से आ जाता था, कह नहीं सकते। कमेटी के कई जवान मेम्बर, जो पहले कॉँग्रेस में बहुत कम आते थे, अब बिलानागा आने लगे थे। मिसेज सकसेना कोई भी प्रस्ताव करें, उनका अनुमोदन करने वालों की कमी न थी। उनकी सादगी, उनका उत्साह, उनकी विनय, उनकी मृदु-वाणी कांग्रेस पर उनका सिक्का जमाये देती थी। हर आदमी उनकी खातिर सम्मान की सीमा तक करता था; पर उनकी स्वाभाविक नम्रता उन्हें अपने दैवी साधनों से पूरा-पूरा फायदा न उठाने देती थी। जब कमरे में आतीं, लोग खड़े हो जाते थे; पर वह पिछली सफ से आगे न बढ़ती थीं।

मिसेज सक्सेना ने प्रधान से पूछा-शराब की दूकानों पर औरतें धरना दे सकती हैं?

सबकी आंखें उनकी ओर उठ गयीं। इस प्रश्न का आशय सब समझ गये।

प्रधान ने कातर स्वर में कहा-महात्मा जी ने तो यह काम औरतों को ही सुपुर्द करने पर जोर दिया है पर...

मिसेज सकसेना ने उन्हें अपना वाक्य पूरा न करने दिया। बोलीं-तो फिर मुझे इस काम पर भेज दीजिए।

लोगों ने कुतूहल की ऑंखों से मिसेज सकसेना को देखा। यह सुकुमारी जिसके कोमल अंगों मे शायद हवा भी चुभती हो, गंदी गलियों में ताड़ी और शराब की दुर्गंध-भरी दूकानों के सामने जाने और नशे से पागल आदमियों की कुलषित ऑंखों और बॉँहों का सामना करने को कैसे तैयार हो गयी।

एक महाशय ने अपने समीप के आदमी के कान में कहा-बला की निडर औरत है।

उन महाशय ने जले हुए शब्दों मे उत्तर दिया- हम लोगों को कॉटो में घसीटना चाहती है, और कुछ नहीं। वह बेचारी क्या पिकेटिंग करेंगी। दूकान के सामने खड़ा तक तो हुआ न जाएगा।

प्रधान ने सिर झुकाकर कहा-मै। आपके साहस और उत्सर्ग की प्रशंसा करता हूँ, लेकिन मेरे विचार में अभी इस शहर की दशा ऐसी नहीं है कि देवियॉँ पिकेटिंग कर सकें। आपको खबर नहीं, नशेबाज कितने मुँहफट होते हैं। विनय तो वह जानते ही नहीं!

मिसेज सकसेना ने व्यंग्य भाव से कहा-तो क्या आपका विचार है कि कोई ऐसा जमाना भी आएग, जब शराबी लोग विनय और शील के पुतले बन जॉँएगे? यह दशा तो हमेशा ही रहैगी। आखिर महात्माजी ने कुछ समझकर ही तो औरतों को यह काम सौंपा है! मैं नहीं कह सकती कि मुझे कहॉँ तक सफलता होगी; पर इस कर्तव्य को टालने से काम न चलेगा।

प्रधान ने पसोपेश में पकड़कर कहा-मैं तो आपको इस काम के लिए घसीटना उचित नहीं समझता, आगे आपको अख्तियार है।

मिसेज सकसेना ने जैसे विनय का आलिंगन करते हुए कहा-मैं आपके पास फरियाद लेकर न आऊँगी कि मुझे फँला आदमी ने मारा या गाली दी। इतना जानती हूँ कि अगर मैं सफल हो गयी, तो ऐसी स्त्रियों की कमी न रहैगी जो इस काम को सोलहो आने अपने हाथ में न ले लें।

इस पर एक नौजवान मेम्बर ने कहा-मैं सभापति जी से निवेदन करूँगा कि मिसेज सकसेना को यह काम देकर आप हिंसा का सामना कर रहै हैं। इससे यह कहीं अच्छा है कि आप मुझे यह काम सौंपे।

इस नौजवान मेम्बर का नाम या जयराम। एक बार एक कड़ा व्याख्यान देने के लिए जेल हो आये थे, पर उस वक्त उनके सिर गृहस्थी का भार न था। कानून पड़ते थे। अब उनका विवाह हो गया था, दो-तीन बच्चे भी हो गये थे, दशा बदल गयी थी। दिल में वही जोश, वही तड़प, वही दर्द था, पर अपनी हालत से मजबूर थे।

मिसेज सकसेना की ओर नम्र आग्रह से देखकर बोले-आप मेरी खातिर इस गंदे काम में हाथ न डालें। मुझे एक सप्ताह का अवसर दीजिए! अगर इस बीच में कही दंगा हो जाय, तो आपको मुझे निकाल देने का अधिकार होगा।

मिसेज सकसेना जयराम को खूब जानती थीं। उन्हें मालूम था कि यह त्याग और साहस का पुतला है और अब तक परिस्थितियों के कारण पीछे दबका हुआ था। इसके साथ ही वह यह भी जानती थीं कि इसमें वह धैर्य और बर्दाश्त नहीं है, जो पिकेटिंग के लिए लाजमी है। जेल में उसने दारोगा को अपशब्द कहने पर चॉंटा लगाया था और उसकी सजा तीन महीने और बढ़ गयी थी। बोलीं-आपके सिर गृहस्थी का भार है। मैं घंमड नहीं करती पर जितने धैर्य से मैं यह काम कर सकती हूँ, आप नहीं कर सकते।

जयराम ने उसी नम्र आग्रह के साथ कहा-आप मेरे पिछले रेकार्ड पर फैसला कर रही हैं। आप भूल जाती हैं कि आदमी की अवस्था के साथ उसकी उद्दंडता घटती जाती है।

प्रधान ने कहा-मैं चाहता हूँ, महाशय जयराम इस काम को अपने हाथों में लें।

जयराम ने प्रसन्न होकर कहा-मैं सच्चे हृदय से आपको धन्यवाद देता हूँ।

मिसेज़ सकसेना ने निराश होकर कहा-महाशय, जयराम, आपने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है और मैं इसे कभी क्षमा न करूँगी। आप लोगों ने इस बात का आज नया परिचय दे दिया कि पुरुषों के अधीन स्त्रियॉँ अपने देश की सेवा भी नहीं कर सकतीं।

दूसरे दिन, तीसरे पहर जयराम पॉँच स्वयंसेवकों को लेकर बेगमगंज के शराबखाने की पिकेटिंग करने जा पहुँचा। ताड़ी और शराब-दोनों की दूकानें मिली हुई थीं। ठीकेदार भी एक ही था। दूकान के सामने सड़क की पटरी पर, अंदर के ऑंगन में नशेबाजों की टोलियॉँ विष में अमृत का आनंद लूट रहीं थीं। कोई वहॉँ अफलातून से कम न था। कहीं वीरता की डींग घी, कहीं अपने दान-दक्षिणा के पचड़े, कहीं अपने बुद्धि-कौशल का आलाप। अहंकार नशे का मुख्य रूप है।

एक बूढ़ा शराबी कह रहा था-भैया, जिंदगानी का भरोसा नहीं। हॉँ, कोई भरोसा नहीं। मेरी बात मान लो, जिदंगानी का कोई भरोसा नहीं। बस यही खाना-खिलाना याद रह जाएगा। धन-दौलत, जगह-जमीन सब धरी रह जाएगी!

दो ताड़ीवालों में एक दूसरी बहस छिड़ी हुई थी-

‘हम-तुम रिआया है भाई! हमारी मजाल है कि सरकार के सामने सिर उठा सकें?’

‘अपने घर में बैठकर बादशाह को गालियॉँ दे लो: लेकिन मैदान में आना कठिन है।’

‘कहॉँ की बात भैया, सरकार तो बड़ी चीज है, लाल पगड़ी देखकर आना कठिन है।’

‘छोटा आदमी भर-पेट खाके बैठता, है तो समझता है, अब बादशाह हमीं है। लेकिन अपनी हैसियत को भूलना न चाहिए।’

‘बहुन पक्की बातें कहते हो खॉँ साहब! अपनी असलियत पर डटे रहो। जो राजा है, वह राजा है! जो परजा है, वह परजा है। भला परजा कहीं राजा हो सकता है?’

इतने में जयराम ने आकर कहा-राम-राम भाइयों राम-राम!

पॉँच-छह खद्दरधारी मनुष्यों को देखकर सभी लोग उनकी ओर शंका और कुतूहल से ताकने लगे। दूकानदार ने चुपके से अपने एक नौकर के कान में कुछ कहा और नौकर दूकान से उतरकर चला गया।

जयराम ने झंडे को जमीन पर खड़ा करके कहा-भाइयों, महात्मा गॉँधी का हुक्म है कि आप लोग ताड़ी-शराब न पियें। जो रुपये आप यहॉँ उड़ा देते हैं, वह अगर अपने बाल-बच्चों को खिलाने में खर्च करें, तो कितनी अच्छी बात हो। जरा देर के नशे के लिए आप अपने बाल-बच्चों को भूखों मारते हैं, गंदे घरों में रहते हैं, महाजन की गालियॉँ खाते हैं। सोचिए, इस रुपये से आप अपने प्यारे बच्चों को कितने आराम से रख सकते हैं!

एक बूढ़े शराबी ने अपने साथी से कहा-भैया, है तो बुरी चीज, घर तबाह करके छोड़ देती है। मुदा इतनी उमर पीते कट गयी, तो अब मरते दम क्या छोड़ें? उसके साथी ने समर्थन किया-पक्की बात कहते हो चौधरी! जब इतीन उमर पीते कट गयी, तो अब मरते दम क्या छोड़े?

जयराम ने कहा-वाह चौधरी यही तो उमिर है छोड़ने की। जवानी दो दीवानी होती है, उस वक्त सब कुछ मुआफ है।

चौधरी ने तो कोई जवाब न दिया! लेकिन उसके साथी ने, जो काला,

मोटा, बड़ी-बड़ी मूँछोंवाला आदमी था, सरल आपत्ति के भाव से कहा-अगर पीना बुरा है, तो अँगरेज क्यों पीते हैं?

जयराम वकील था, उससे बहस करना भिड़ के छत्ते को छेड़ना था। बोला-यह तुमने बहुत अच्छा सवाल पूछा भाई। अँगरेजों के बाप-दादा अभी डेढ़-दो सौ साल पहले लुटेरे थे। हमारे-तुम्हारे बाप-दादा ऋषि-मुनि थे। लुटेरों की संतान पिये, तो पीने दो। उनके पास न कोई धर्म है, न नीति! लेकिन ऋषियों की संतान उनकी नकल क्यों करे? हम और तुम उन महात्माओं की संतान है, जिन्होंने दुनिया को सिखाया, जिन्होंने दुनिया को आदमी बनाया। हम अपना धर्म छोड़ बैठे, उसी का फल है कि आज हम गुलाम हैं। लेकिन अब हमने गुलामी की जंजीरों को तोड़ने का फैसला कर लिया है और...

एकाएक थानेदार और चार-पॉँच कॉँस्टेबल आ खड़े हुए।

थानेदार ने चौधरी से पूछा-यह लोग तुमको धमका रहै हैं?

चौधरी ने खड़े होकर कहा-नहीं हुजूर, यह तो हमें समझा रहै हैं। कैसे प्रेम से समझा रहै हैं कि वाह!

थानेदार ने जयराम से कहा-अगर यहॉँ फिसाद हो जाए, तो आप जिम्मेदार होंगे?

जयराम-मैं उस वक्त तक जिम्मेदार हूँ, जब तक आप न रहै।

‘आपका मतलब है कि मैं फिसाद कराने आया हूँ?’

‘मैं यह नहीं कहता; लेकिन आप आये हैं, तो अँगरेजी साम्राज्य की अतुल शक्ति का परिचय जरूर ही दीजिएगा। जनता मे उत्तेजना फैलेगी। तब आप पिल पड़ेंगे और दस-बीस आदमियों को मार गिरायेंगे। वही सब जगह होता है और यहॉँ भी होगा।’

सब इन्सपेक्टर ने ओठ चबाकर कहा-मैं आपसे कहता हूँ, यहॉँ से चले जाइए, वरना मुझे जाब्ते की कार्रवाई करनी पड़ेगी।

जयराम ने अविचल भाव से कहा-और मैं आपसे कहता हूँ कि आप मुझे अपना काम करने दीजिए। मेरे बहुत-से भाई यहॉँ जमा हैं और मुझे उनसे बातचीत करने का उतना ही हक है जितना आपको।

इस वक्त तक सैकड़ों दर्शक जमा हो गये थे। दारोगा ने अफसरों से पूछे बगैर और कोई कार्रवाई करना उचित न समझा। अकड़ते हुए दूकान पर गये और कुरसी पर पावँ रखकर बोले-ये लोग तो मानने वाले नहीं हैं।

दूकानदार ने गिड़गिड़ाकर कहा-हुजूर, मेरी तो बघिया बैठ जाएगी।

दारोगा-दो-चार गुण्डे बुलाकर भगा क्यों नहीं देते? मैं कुछ न बोलूँगा। हॉँ, जरा एक बोतल अच्छी-सी भेज देना। कल न जाने क्या भेज दिया, कुछ मजा ही नहीं आया।

थानेदार चला गया, तो चौधरी ने अपने साथी से कहा-देखा कल्लू, थानेदार कितना बिगड़ रहा था? सरकार चाहती है कि हम लोग खूब शराब पीयें और कोई हमें समझाने न पाये। शराब का पैसा भी तो सरकार ही में जाता है?

कल्लू ने दार्शनिक भाव से कहा-हर एक बहाने से पैसा खींचते हैं सब।

चौधरी-तो फिर क्या सलाह है? है तो बुरी चीज?

कल्लू-बहुत बुरी चीज है भैया, महात्मा जी का हुक्म है, तो छोड़ ही देना चाहिए।

चौधरी-अच्छा तो यह लो, आज से अगर पिये तो दोगला।

यह कहते हुए चौधरी ने बोतल जमीन पर पटक दी। आधी बोतल शराब जमीन पर बह कर सूख गयी।

जयराम को शायद जिंदगी में कभी इतनी खुशी न हुई थी। जोर-जोर से तालियॉँ बजा कर उछल पड़े।

उसी वक्त दोनों ताड़ी पीनेवालों मे भी ‘महात्मा जी की जय’ पुकारी और अपनी हॉँड़ी जमीन पर पटक दी। एक स्वयंसेवक ने लपक कर फूलों की माला ली और चारों आदमियों के गले में डाल दी।

सड़क की पटरी पर कई नशेबाज बैठे इन चारों आदमियों की तरफ उस दुर्बल भक्ति से ताक रहै थे, जो पुरुषार्थहीन मनुष्यों का लक्षण है। वहॉँ एक भी ऐसा व्यक्ति न था, जो अंगरेजों की मांस-मदिरा या ताड़ी को जिंदगी के लिए अनिवार्य समझता हो और उसके बगैर जिंदगी की कल्पना भी न कर सके। सभी लोग नशे को दूषित समझते थे, केवल दुर्बलेन्द्रिय होने के कारण नित्य आ कर पी जाते थे। चौधरी जैसे घाघ पियक्कड़ को बोतल पटकते देख कर उनकी ऑंखें खुल गयीं

एक मरियल दाढ़ीवाले आदमी ने आकर चौधरी की पीठ ठोंकी। चौधरी ने उसे पीछे ढकेल कर कहा-पीठ क्या ठोंकते हो जी, जा कर अपनी बोतल पटक दो।

दाढ़ीवाले ने कहा-आज और पी लेने दो चौधरी! अल्लाह जानता है, कल से इधर भूलकर भी न आऊँगा।

चौधर-जितनी बची हो, उसके पैसे हमसे ले लो। घर जाकर बच्चों को मिठाई खिला देना।

दाढ़ीवाले ने जा कर बोतल पटक दी और बोला-लो, तुम भी क्या कहोगे? अब तो हुए खुश!

चौधरी-अब तो न पीयोगे कभी?

दाढ़ीवाले ने कहा-अगर तुम न पीयोगे, तो मैं भी न पीऊँगा। जिस दिन तुमने पी, उसी दिन फिर शुरू कर दी।

चौधरी की तत्परता से दुराग्रह की जड़ें हिला दीं। बाहर अभी पॉँच-छह आदमी और थे। वे सचेत निर्लज्जता से बैठे हुए अभी तक पीते जाते थे। जयराम ने उनके सामने जा कर कहा-भाइयों, आपके पॉँच भाइयों ने अभी आपके सामने अपनी-अपनी बोतल पटक दी। क्या आप उन लोगों को बाजी जीत ले जाने देंगे?

एक ठिगने, काले आदमी ने जो किसी अँगरेज का खाननामा मालूम होता था, लाल-लाल ऑंखें निकाल कर कहा-हम पीते हैं, तुमसे मतलब? तुमसे भीख मॉँगने तो नहीं जाते?

जयराम ने समझ लिया, अब बाजी मार ली। गुमराह आदमी जब विवाद करने पर उतर आये, तो समझ लो, वह रास्ते पर आ जायेगा। चुप्पा ऐब वह चिकना घड़ा है, जिस पर किसी बात का असर नहीं होता।

जयराम ने कहा-अगर मै अपने घर में आग लगाऊँ, तो उसे देखकर क्या आप मेरा हाथ न पकड़ लेंगे,? मुझे तो इसमें रत्ती भर संदेह नहीं है कि आप मेरा हाथ ही न पकड़ लेंगे, बल्कि मुझे वहॉँ से जबरदस्ती खींच ले जायेंगे।

चौधरी ने खानसामा की तरफ मुग्ध ऑंखों से देखा, मानों कह रहा है-इसका तुम्हारे पास क्या जवाब है? और बोला-जमादार, अब इसी बात पर बोतल पटक दो।

खानसामा ने जैसे काट खाने के लिए दॉँत तेज कर लिए और बोला-बोतल क्यों पटक दूँ, पैसे नहीं दिये है?

चौधरी परास्त हो गया। जयराम ने बोला- इन्हें छोड़िए बाबू जी, यह लोग इस तरह मानने वाले असामी नहीं है। आप इनके सामने जान भी दे दें तो भी शराब न छोड़ेंगे। हॉँ, पुलिस की एक घुड़की पा जायँ तो फिर कभी इधर भूल कर भी न आयें।

खानसामा ने चौधरी की ओर तिरस्कार के भाव रो देखा, जैसे कह रहा हो-क्या तुम समझते हो कि मैं मनुष्य हूँ, यह सब पशु है? फिर बोला- तुमसे क्या मतलब है जी, क्यों बीच में कूद पड़ते हो? मैं तो बाबू जी से बात कर रहा हूँ। तुम कौन होते हो बीच में बोलने वाले? मै तुम्हारी तरह नहीं हूँ कि बोतल पटक कर वाह-वाह कराऊँ। कल फिर मुँह में कालिख लगाऊँ, घर पर मँगवा कर पीऊँ? जब यहॉँ छोड़ेंगे, तो सच्चे दिल से छोड़ेंगे। फिर कोई लाख रुपये भी दे तो ऑंख उठा कर न देखें।

जयराम-मुझे आप लोगों से ऐसी ही आशा है।

चौधरी ने खानसामा की ओर कटाक्ष करके कहा-क्या समझते हो, मैं कल फिर पीने आऊँगा?

खानसामा ने उद्दडंता से कहा-हॉँ-हॉँ; कहता हूँ, तुम आओगे और बद कर आओगे। कहो, पक्के कागज पर लिख दूँ!

चौधरी-अच्छा भाई, तुम बड़े धरमात्मा हो, मैं पापी सही। तुम छोड़ोगे तो जिंदगी-भर के लिए छोड़ोगे, मैं आज छोड़ कर कल फिर पीने लगूंगा, यही सही। मेरी एक बात गॉँठ बॉँध लो। तुम उस बखत छोड़ोगे, जब जिंदगी तुम्हारा साथ छोड़ देगी। इसके पहले तुम नहीं छोड़ सकते। जब जिंदगी तुम्हारा साथ छोड़ देगी। इसके पहले तुम नहीं छोड़ सकते।

खासनामा-तुम मेरे दिल का हाल क्या जानते हो?

चौधरी-जानता हूँ, तुम्हारे जैसे सैकड़ों आदमी को भुगत चुका हूँ।

खासनामा-तो तुमने ऐसे-वैसे बेशर्मों को देखा होगा। हयादार आदमियों को न देखा होगा।

यह कहते हुए उसने जा कर बोतल पटक दी और बोला-अब अगर तुम इस दूकान पर देखना, तो मुहॅं में कालिख लगा देना।

चारों तरफ तालियॉँ बजने लगीं। मर्द ऐसे होते हैं!

ठीकेदार ने दूकान के नीचे उतर कर कहा-तुम लोग अपनी-अपनी दूकान पर क्यों नहीं जाते जी? मैं तो किसी की दूकान पर नहीं जाता?

एक दर्शक ने कहा-खड़े हैं, तो तुमसे मतलब? सड़क तुम्हारी नहीं हैं? तुम गरीबों को लूट जाओ। किसी के बाल-बच्चे भूखों मरें तुम्हारा क्या बिगड़ता है। (दूसरे शराबियों सें) क्या यारो, अब भी पीते जाओगे! जानते हो, यह किसका हुक्म है? अरे कुछ भी तो शर्म हो?

जयराम ने दर्शकों से कहा-आप लोग यहॉँ भीड़ न लगायें और न किसी को भला-बुरा कहै।

मगर दर्शकों का समूह बढ़ता जाता था। अभी तक चार-पॉँच आदमी बे-गम बैठे हुए कुल्हड़ चढ़ा रहै थे। एक मनचले आदमी ने जा कर उस बोतल को उठा लिया, जो उनके बीच मे रखी हुई थी और उसे पटकना चाहता था कि चारों शराबी उठ खड़े हुए और उसे पीटने लगे। जयराम और उसके स्वयं सेवक तुरंत वहॉँ पहुँच गये और उसे बचाने की चेष्टा करने लगे कि चारों उसे छोड़ कर जयराम की तरफ लपके। दर्शकों ने देखा कि जयराम पर मार पड़ा चाहती है, तो कई आदमी झल्ला कर उन चारों शराबियों पर टूट पड़े। लातें, घूँसे और डंडे चलाने लगे। जयराम को इसका कुछ अवसर न मिलता था कि किसी को समझाये। दोनों हाथ फैलाये उन चारों के वारों से बच रहा था; वह चारों भी आपे से बाहर होकर दर्शकों पर डंडे चला रहै थे। जयराम दोनों तरफ से मार खाता था। शराबियों के वार भी उस पर पड़ते थे, तमाशाईयों के वार भी उसी पर पड़ते थे; पर वह उनके बीच से हटता न था। अगर वह इस वक्त अपनी जान बचा कर हट जाता, तो शराबियों की खैरियत न थी। इसका दोष कॉँग्रेस पर पड़ता। वह कॉँग्रेस का इस आक्षेप से बचाने के लिए अपने प्राण देने पर तैयार था। मिसेज सकसेना का अपने ऊपर हँसने का मौका वह न देना चाहता था।

आखिर उसके सिर पर डंडा इस जोर से पड़ा कि वह सिर पकड़ कर बैठ गया। आँखों के के सामने तितलियॉँ उड़ने लगी। फिर उसे होश न रहा।

जयराम सारी रात बेहोश पड़ा रहा। दूसरे दिन सुबह को जब उसे होश आया, तो सारी देह में पीड़ा हो रही थी और कमजोरी इतनी थी कि रह-रह कर जी डूबता जाता था। एकाएक सिरहाने की तरफ ऑंख उठ गयी, तो मिसेज सकसेना बैठी नजर आयीं। उन्हें देखते ही स्वयंसेवकों के मना करने पर भी उठ बैठा। दर्द और कमजोरी दोनो जैसे गायब हो गयी। एक-एक अंग में स्फूर्ति दौड़ गयी।

मिसेज सकसेना ने उसके सिर पर हाथ रख कर कहा-आपको बड़ी चोट आयी। इसका सारा दोष मुझ पर है।

जयराम ने भक्तिमय कृतज्ञता के भाव से देख कर कहा-चोट तो ऐसी ज्यादा न था, इन लोगों ने बरबस पट्टी-सट्टी बॉँध कर जख्मी बना दिया।

मिसेज सकसेना ने ग्लानित हो कर कहा-मुझे आपको न जाने देना चाहिए था।

जयराम-आपका वहॉँ जाना उचित न था। मैं आपसे अब भी यही

अनुरोध करूँगा कि उस तरफ न जाइएगा।

मिसेज सकसेना ने जैसे उन बाधाओं पर हॅंस कर कहा-वाह! मुझे आज से वहॉँ पिकेट करने की आज्ञा मिल गयी है।

‘आप मेरी इतनी विनय मान जाइएगा। शोहदों के लिए आवाज कसना बिलकुल मामूली बात है।’

‘मैं आवाजों की परवाह नहीं करती!’

‘तों फिर मैं भी आपके साथ चलूँगा’

‘आप इस हालत में?’-मिसेज सकसेना ने आश्चर्य से कहा।

‘मैं बिलकुल अच्छा हूँ, सच!

‘यह नहीं हो सकता। जब तक डाक्टर यह न कह देगा कि अब आप वहॉँ जाने के योग्य हैं, आपको न जाने दूँगी। किसी तरह नहीं।’

‘तो मैं भी आपको न जाने दूँगी।’

मिसेज सकसेना ने मृद़ु-व्यंग के साथ कहा-आप भी अन्य परुषों ही की भाँति स्वार्थ के पुतले हैं। सदा यश खुद लूटना चाहते हैं, औरतों को कोई मौका नहीं देना चाहते। कम से कम यह तो देख लीजिए कि मैं भी कुछ कर सकती हूँ या नहीं।

जयराम ने व्यथित कंठ से कहा-जैसी आपकी इच्छा!

तीसरे पहर मिसेज सकसेना चार स्वयंसेवकों के साथ बेगमगंज चलीं। जयराम ऑंखें बंद किए चारपाई पर पड़ा था। शोर सुन कर चौंका और अपनी स्त्री से पूछा-यह कैसा शोर है?

स्त्री ने खिड़की से झॉँक कर देखा और बोली-वह औरत, जो कल आयी थी झंडा लिए कई आदमियों के साथ जा रही है। इसमें शर्म भी नहीं आती।

जयराम ने उसके चेहरे पर क्षमा की दृष्टि डाली और विचार में डूब गया। फिर वह उठ खड़ा हुआ और बोला-मैं भी वहीं जाता हूँ।

स्त्री ने उसका हाथ पकड़ कर कहा-अभी कल मार खा कर आये हो, आज फिर जाने की सूझी!

जयराम ने हाथ छुड़ा कर कहा-तुम उसे मार कहती हो, मैं उसे उपहार समझता हूँ।

स्त्री ने उसका रास्ता रोक लिया-कहती हूँ, तुम्हारा जी अच्छा नहीं है, मत जाओ, क्यों मेरी जान के ग्राहक हुए हो? उसकी देह में हीरे
नहीं जड़े हैं, जो वहॉँ कोई नोच लेगा!

जयराम ने मिन्नत करके कहा-मेरी तबीयत बिलकुल अच्छी है चम्मू! अगर कुछ कसर है तो वह भी मिट जाएगी। भला सोचो, यह कैसे मुमकिन है कि देवी उन शोहदों के बीच में पिकेटिंग करने जाय और मैं बैठा रहूँ। मेरा वहॉँ रहना जरूरी है! अगर कोई बात आ पड़ी, तो कम से कम मैं लोगों को समझा तो सकूँगा।

चम्मू ने जल कर कहा-यह क्यों नहीं कहते कि कोई और ही चीज खींचे लिये जाती है!

जयराम ने मुस्करा कर उसकी ओर देखा, जैसे कह रहा हो-यह बात तुम्हारे दिल से नहीं, कंठ से निकल रही है और कतरा कर निकल गया। फिर द्वार पर खड़ा होकर बोला-शहर में तीन लाख से कुछ ही कम आदमी है, कमेटी में तीस मेम्बर हैं; मगर सब के सब जी चुरा रहै हैं। लोगों को अच्छा बहाना मिल गया कि शराबखानों पर धरना देने के लिए स्त्रियों ही को इस काम के लिए उपयुक्त समझा जाता है? इसीलिए कि मरदों के सिर भूत सवार हो जाता है और जहॉँ नम्रता से काम लेना चाहिए, वहॉँ लोग उग्रता से काम लेने लगते हैं। वे देवियॉँ क्या इसी योग्य हैं कि शोहदों के फिकरे सुनें और उनकी कुदृष्टि का निशाना बनें? कम से कम मैं यह नहीं देख सकता।

वह लँगड़ाता हुआ घर से निकल पड़ा। चम्मू ने फिर उसे रोकने का प्रयास नहीं किया। रास्ते में एक स्वयंसेवक मिल गया। जयराम ने उसे साथ लिया और एक तॉँगे पर बैठ कर चला। शराबखाने से कुछ दूर इधर एक लेमनेड-बर्फ की दूकान थी। उसने तॉँगें को छोड़ दिया और वालंटियर को शराबखाने भेज कर खुद उसी दूकान में जा बैठा।

दूकानदार ने लेमनेड का एक गिलास उसे देते हुए कहा-बाबू जी, कलवाले चारों बदमाश आज फिर आये हुए हैं। आपने न बचाया होता तो आज शराब या ताड़ी की जगह हल्दी-गुड़ पीते होते।

जयराम ने गिलास लेकर कहा-तुम लोग बीच में न कूद पड़ते, तो मैंने उन सबों को ठीक कर लिया होता।

दूकानदार ने प्रतिवाद किया-नहीं बाबू जी, वह सब छँटे हुए गुंडे हैं। मैं तो उन्हें अपनी दूकान के सामने खड़ा भी नहीं होने देता। चारों तीन-तीन साल काट आये हैं।

अभी बीस मिनट भी न गुजरे होंगे कि एक स्वयंसेवक आकर खड़ा हो गया। जयराम ने संचित हो कर पूछा-कहो, वहॉँ क्या हो रहा है?

स्वयंसेवक ने कुछ ऐसा मुँह बना लिया, जैसे वहॉँ की दशा कहना वह उचित नहीं समझता और बोल-कुछ नहीं, देवी जी आदमियों को समझा रही हैं।

जयराम ने उसकी ओर अतृप्त नेत्रों से ताका, मानों कह रहै हों-बस इतना ही! इतना तो मैं जानता ही था।

स्वयंसेवक ने एक क्षण बाद फिर कहा-देवियों का ऐसे शोहादों के सामने जाना अच्छा नहीं।

जयराम ने अधीर होकर पूछा- साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते, क्या बात है।

स्वयंसेवक डरते-डरते बोला-सब के सब उनसे दिल्लगी कर रहै हैं। देवियों का यहॉँ आना अच्छा नहीं।

जयराम ने और कुछ न पूछा। डंडा उठाया और लाल-लाल ऑंखें निकाले बिजली की तरह कौधं कर शराबखाने के सामने जा पहुँचा और मिसेज सकसेना का हाथ पकड़ कर पीछे हटाता हुआ शराबियों से बोला-अगर तुम लोगों ने देवियों के साथ जरा भी गुस्ताखी की, तो तुम्हारे हक़ में अच्छा न होगा। कल मैंने तुम लोगों की जान बचायी थी आज इसी डंडे से तुम्हारी खोपड़ी तोड़ कर रख दूँगा।

उसके बदले हुए तेवर को देख कर सब के सब नशेबाज घबड़ा गये। वे कुछ कहना चाहते थे कि मिसेज सकसेना ने गभ्भीर भाव से पूछा-आप यहॉँ क्यों आये! मैंने तो आपसे कहा था, अपनी जगह से न हिलिएगा। मैंने तो आपसे मदद न मॉँगी थी?

जयराम ने लज्जित हो कर कहा-मैं इस नीयत से यहॉँ नहीं आया था। एक जरूरत से इधर आ निकला था। यहॉँ जमाव देख कर आ गया। मेरे ख्याल में आप अब यहॉँ से चलें। मैं आज कॉँग्रेस कमेटी में यह सवाल पेश करूँगा कि इस काम के लिए पुरुषों को भेजें।

मिसेज सकसेना ने तीखे स्वर में कहा-आपके विचार में दुनिया के सारे काम मरदों के लिए है!

जयराम-मेरा यह मतलब न था।

मिसेज सकसेना-तो आप जा कर आराम से लेटें और मुझे अपना काम करने दें।

जयराम वहीं सिर झुकाये खड़ा रहा।

मिसेज सकसेना ने पूछा-अब आप क्यों खड़े हैं?

जयराम ने विनीत स्वर में कहा-मैं भी यहीं एक किनारे खड़ा रहूंगा।

मिसेज़ सकसेना ने कठोर स्वर में कहा—जी नहीं, आप जायें।

जयराम धीरे-धीरे लदी हुई गाड़ी की भांति चला और आकर फिर उसी लेमनेड की दूकान पर बैठ गया। उसे जोर की प्यास लगी थी। उसने एक गिलास शर्बत बनवाया और सामने मेज पर रख कर विचार में डूब गया; मगर आंखें और कान उसी तरफ़ लगे हुए थे।

जब कोई आदमी दूकान पर आता, वह चौंककर उसकी तरफ़ ताकने लगता—वहां कोई नयी बात तो नहीं हो गयी?

कोई आध घंटे बाद वही स्वयंससेवक फिर डरा हुआ-सा आकर खड़ा हो गया। जयराम ने उदासीन बनने की चेष्टा करके पूछा—वहां क्या हो रहा है जी?

स्वयंसेवक ने कानों पर हाथ रख कर कहा—मैं कुछ नहीं जानता बाबू जी, मुझसे कुछ न पूछिए।

जयराम ने एक साथ ही नम्र और कठोर होकर पूछा—फिर कोई छेड़छाड़ हुई?

स्वयंसेवक—जी नहीं, कोई छेड़छाड़ नहीं हुई। एक आदमी ने देवी जी को धक्का दे दिया, वे गिर पड़ीं।

जयराम निस्पंद बैठा रहा; पर उसके अंतराल में भूकम्प-सा मचा हुआ था। बोला—उनके साथ के साथ के स्वयंसेवक क्या कर रहै हैं?

‘खड़े हैं, देवी जी उन्हें बोलने ही नहीं देतीं।’

‘तो क्या बड़े जोर से धक्का दिया ?’

‘जी हां, गिर पड़ीं। घुटनों में चोट आ गयी। वे आदमी साथ पी रहे थे। जब एक बोतल उड़ गयी, तो उनमें से एक आदमी दूसरी बोतल लेने चला। देवी जी ने रास्ता रोक लिया। बस, उसने धक्का दे दिया। वही जो काला-काला मोटा-सा आदमी है ! कलवाले चारों आदमियों की शरारत है।’

जयराम उन्माद की दशा में वहां से उठा और दौड़ता हुए शराबखाने के सामने आया। मिसेज़ सकसेना सिर पकड़े जमीन पर बैठी हुई थीं और वह काला मोटा आदमी दूकान के कठघरे के सामने खड़ा था। पचासों आदमी जमा थे। जयराम ने उसे देखते ही लपक कर उसकी गर्दन पकड़ ली और इतने जोर से दबाई कि उसकी आंखें बाहर निकल आयीं। मालूम होता था, उसके हाथ फौलाद के हो गये हैं।

सहसा मिसेज़ सकसेना ने आकर उसका फौलादी हाथ पकड़ लिया

और भवें सिकोड़ कर बोलीं—छोड़ दो इसकी गर्दन क्या इसकी जान ले लोगे?

जयराम ने और जोर से उसकी गर्दन दबायी और बोला—हां, ले लूंगा? ऐसे दुष्ट की यही सजा है।

मिसेज़ सकसेना ने अधिकार-गर्व से गर्दन उठाकर कहा—आपको यहां आने का कोई अधिकार नहीं है।

एक दर्शक ने कहा—ऐसा दबाओ बाबूजी, कि साला ठंडा हो जाय। इसने देवी जी को ऐसा ढकेला कि बेचारी गिर पड़ीं। हमें तो बोलने का हुक्म नहीं है, नहीं तो हड्डी तोड़ कर रख देते।

जयराम ने शराबी की गर्दन छोड़ दी। वह किसी बाज के चगुंल से छूटी हुई चिड़िया की तरह सहमा हुआ खड़ा हो गया। उसे एक धक्का देते हुए उसने मिसेज़ सकसेना से कहा—आप यहां से चलती क्यों नहीं? आप जायं, मैं बैठता हूं; अगर एक छटांक शराब बिक जाय, तो मेरा कान पकड़ लीजियेगा।

उसका दम फूलने लगा। आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था। वह खड़ा न रह सका। जमीन पर बैठ कर रुमाल से माथे का पसीना पोंछने लगा।

मिसेज़ सकसेना ने परिहास करके कहा—आप कांग्रेस नहीं हैं कि मैं आपका हुक्म मानूं। अगर आप यहां से न जायंगे, तो मैं सत्याग्रह करुंगी।

फिर एकाएक कठोर होकर बोलीं—जब तक कांग्रेस ने इस काम का भार मुझ पर रखा है, आपको मेरे बीच में बोलने का कोई हक नहीं है। आप मेरा अपमान कर रहे हैं। कांग्रेस-कमेटी के सामने आपको इसका जवाब देना होगा।

जयराम तिमिला उठा। बिना कोई जवाब दिये लौट पड़ा और वेग से घर की तरफ चला; पर ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था, उसकी गति मंद होती जाती थी। यहां तक कि बाजार के दूसरे सिरे पर आ कर वह रुक गया। रस्सी यहां खतम हो गयी। उसके आगे जाना उसके लिए असाध्य हो गया। जिस झटके ने उसे यहां तक भेजा था, उसकी शक्ति अब शेष हो गयी थी। उन शब्दों में जो कटुता और चोट थी, अब उसे सहानुभूति और स्नेह की सुगंध आ रही थी।

उसे फिर चिंता हुई न जाने वहां क्या हो रहा है। कहीं उन बदमाशों ने और कोई दुष्टता न की हो, या पुलिस न आ जाय।

वह बाजार की तरफ मुड़ा लेकिन एक कदम ही चल कर फिर रुक

गया। ऐसे पसोपेश में वह कभी न पड़ा था।

सहसा उसे वही स्वयंसेवक दौड़ता आता दिखाई देता। वह बदहवास होकर उससे मिलने के लिए खुद भी उसकी तरफ दौड़ा। बीच में दोनों मिल गये।

जयराम ने हांफते हुए पूछा—क्या हुआ? क्यों भागे जा रहे हो?

स्वयंसेवक ने दम लेकर कहा—बड़ा गजब हो गया बाबू जी ! आपके आने के बाद वह काला शराबी बोतल लेकर दूकान से चला, तो देवी जी दरवाजे पर बैठ गयीं। वह बार-बार देवी जी को हटाकर निकलना चाहता है; पर वह फिर आ कर बैठ जाती हैं। धक्कम-धक्के में उनके कुछ कपड़े फट गये हैं और कुछ चोट भी...

अभी बात पूरी न हुई थी कि जयराम शराबखाने की तरफ दौड़ा।

जयराम शराबखाने के सामने पहुंचा तो देखा, मिसेज़ सकसेना के चारों स्वयंसेवक दूकान के सामने लेटे हुए हैं और मिसेज़ सकसेना एक किनारे सिर झुकाये खड़ी हैं। जयराम ने डरते-डरते उनके चेहरे पर निगाह डाली। आंचल पर रक्त की बूंदें दिखाई दीं। उसे फिर कुछ सुध न रही। खून की वह चिनगारियां जैसे उसके रोम-रोम में समा गयीं। उसका खून खौलने लगा, मानो उसके सिर खून सवार हो गया हो। वह उन चारों शराबियों पर टूट पड़ा और पूर जारे के साथ लकड़ी चलाने लगा। एक-एक बूंद की जगह वह एक-एक घड़ा खून बहा देना चाहता था। खून उसे कभी इतना प्यारा न था। खून में इतनी उत्तेजना है, इसकी उसे खबर न थी।

वह पूरे जारे से लकड़ी चला रहा था। मिसेज़ सकसेना कब आकर उसके सामने खड़ी हो गयीं उसे कुछ पता न चला। जब वह जमीन पर गिर पड़ीं, तब उसे जैसे होश हआ गया हो। उसने लकड़ी फेंक दी और वहीं निश्चल, निस्पंद खड़ा हो गया, मानों उसका रक्तप्रवाह रुक गया है।

चारों स्वयंससेवकों ने दौड़ कर मिसेज़ सकसेना को पंखा झलना शुरु किया। दूकानदार ठंडा पानी लेकर दौड़ा। एक दर्शक डाक्टर को बुलाने भागा, पर जयराम वहीं बेजान खड़ा था जैसे स्वयं अपने तिरस्कार-भाव का पुतला बन गया हो। अगर इस वक्त कोई उसकी आँखें लाल लोहै से फोड़ देता, तब भी वह चूं न करता।

फिर वहीं सड़क पर बैठकर उसने अपने लज्जित, तिरस्कृत, पराजित मस्तक को भूमि पर पटक दिया और बेहोश हो गया।

उसी वक्त उस काले मोटे शराबी ने बोतल जमीन पर पटक दी और उसके सिर पर ठंडा पानी डालने लगा।

एक शरीबी ने लैसंसदार से कहा—तुम्हारा रोजगार अन्य लोगों की जान लेकर रहैगा। अब तो अभी दूसरा ही दिन है।

लैसंसदार ने कहा—कल से मेरा इस्तीफा है। अब स्वेदेशी कपड़े का रोजगार करुंगा, जिसमें जस भी है और उपकार भी।

शरीबी ने कहा—घाटा तो बहुत रहेगा।

दूकानदार ने किस्मत ठोंक कर कहा—घाटा-नफा तो जिंदगानी के साथ है।

पत्नी से पति

 

मिस्टर सेठ को सभी हिन्दुस्तानी चीजों से नफरत थी ओर उनकी सुन्दरी पत्नी गोदावरी को सभी विदेशी चीजों से चिढ़ ! मगर धैर्य ओर विनय भारत की देवियों का आभूषण है गोदावरी दिल पर हजार जब्र करके पति की लायी हुई विदेशी चीजों का व्यवहार करती थी, हालांकि भीतर ही भीतर उसका हदय अपनी परवशता पर रोता था। वह जिस वक्त अपने छज्जे पर खड़ी होकर सड़क पर निगाह दौड़ाती ओर कितनी ही महिलाओं को खद्दर की साड़ियों पहने गर्व से सिर उठाते चलते देख्रती, तो उसके भीतर की वेदना एक ठंडी आह बनकर निकल जाती थी। उसे ऐसा मालूम होता था कि मुझसे ज्यादा बदनसीब औरत संसार में नहीं हैं मै अपने स्वदेश वासियों की इतनी भी सेवा नहीं कर सकती? शाम को मिस्टर सेठ के आग्रह करने पर वह कहीं मनोरंजन या सैर के लिए जाती, तो विदेशी कपड़े पहने हुए निकलते शर्म से उसकी गर्दन झुक जाती थी। वह पत्रों मे महिलाओं के जोश- भरे व्याख्यान पढ़ती तो उसकी आंखें जगमगा उठती, थोड़ी देर के लिए वह भूल जाती कि मैं यहां बन्धनों मे जकड़ी ह़ई हू।

होली का दिन था, आठ बजे रात का समय । स्वदेश के नाम पर बिके हुए अनुरागियों का जुलूस आकर मिस्टर सेठ के मकान के सामने रूका ओर उसी चौड़े मैदान में विलायती कपड़ों ही होलियां लगाने की तैयारियां होने ल्रगीं। गोदावरी अपने कमरे में खिड़की पर खड़ी यह समारोह देखती थी ओर दिल मसोसकर रह जाती थी एक वह है, जो यों खुश-खुश, आजादी के नशे-मतवाले, गर्व से सिर उठाये होली लगा रहे हैं, और एक में हूं कि पिंजड़े में बन्द पक्षी की तरह फड़फड़ा रही हूं । इन तीलियों को केसे तोड़ दूं? उसने कमरे मे निगाह दौड़ायी । सभी चीजें विदेशी थीं । स्वेदेशी का एक सूत भी न था यही चीजें वहॉँ जलायी जा रही थी ओर वही चीजें यहॉँ उसके ह्रदय में संचित ग्लानि की भांति सन्दुकों में रखी हुई थीं। उसके जी में एक लहर उठ रही थी कि इन चीजों को उठाकर उसी होली में डाल दे, उसकी सारी ग्लानि और दुर्बलता जलकर भस्म हो जाय। मगर पति को अप्रसन्नता के भय ने उसका हाथ पकड़ लिया । सहसा मि० सेठ के आकर अन्दर कहा- जरा इन सिरफरों को देखों, कपड़े जला रहे हैं। यह पागलपन, उन्माद और विद्रोह नहीं तो और क्या है। किसी ने सच कहा है, हिदुस्तानियों के न अक्ल आयी है न आयेगी । कोई कल भी तो सीधी नहीं ।

गोदावरी ने कहा – तुम भी हिंदुस्तानी हो।

सेठ ने गर्म होकर कहा- हॉ, लेकिन मुझे इसका हमेशा खेद रहता है कि ऐसे अभागे देश में क्यों पैदा हुआ। मैं नहीं चाहता कि कोई मुझे हिन्दुस्तानी कहे या समझे । कम- से–कम मैंने आचार –व्यवहार वेश-भुषा, रीति-नीति, कर्म – वचन में कोई ऐसी बात नहीं रखी, जिससे हमें कोई हिन्दुस्तानी होने का कलंक लगाए । पूछिए, जब हमें आठ आने गज में बढ़िया कपड़ा मिलता है, तो हम क्यों मोटा टाट खरीदें । इस विषय में हर एक को पूरी स्वाधीनता होनी चाहिए । न जाने क्यों गवर्नमेंट ने इन दुष्टों को यहां। जमा होने दिया । अगर मेरे हाथ में अधिकार होता, तो सबों को जहन्नुम रसीद कर देता । तब आटे- दाल का भाव मालूम होता ।

गोदावरी ने अपने शब्द मे तीक्ष्ण तिरस्कार भर के कहा—तुम्हें अपने भइयों का जरा ख्याल नहीं आता ? भारत के सिवा और भी कोई देश है, जिस पर किसी दूसरी जाति के शासन हो? छोटे-छोटे राष्ट्र भी किसी दूसरी जाति के गुलाम बनकर नहीं रहना चाहते । क्या एक हिन्दुस्तानी के लिए यह लज्जा की बात नहीं है कि वह अपने ही भाइयों के साथ अन्याय करे ?

सेठ ने भोंहैं चढ़ाकर कहा- मैं इन्हे अपना भाई नहीं समझता।

गेदावरी- आखिर तुम्हें सरकार जो वेतन देती है, वह इन्हीं की जेब से तो आता हैं !

सेठ- मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि मेरा वेतन किसकी जेब से आता है मुझे जिसके हाथ से मिलता है, वह मेरा स्वामी है, न जाने इन दुष्टों को क्या सनक सवार हुई है कहते हैं, भारत आध्यात्मिक देश है। क्या अध्यामत्म का यही आशय है कि परमात्मा के विधानों का विरोध किया जाय? जब यह मालूम है कि परमात्मा की इच्छा के विरूद्ध एक पत्ती भी नहीं हिल सकती, तो यह मुमकिन है कि यह इतना बड़ा देश परामात्मा की मर्जी बगैर अंगरेजों के अधीन हो? क्यों इन दीवानों को इतनी अक्ल नहीं आती कि जब तक परमात्मा की इच्छा न होगी, कोई अंग्ररेजों का बाल भी बॉका न कर सकेगा !

गोदावरी - तो फिर क्यों नोकरी करते हो? परमात्मा की इच्छा होगी, तो आप ही आप भोजन मिल जाएगा बीमार होते हो , तो क्यों दौड़े वैद्य के घर जाते हो? पररमात्मा उन्हीं की मदद करता है, जो अपनी मदद आप करते है।

सेठ—बेशक करता है; लेकिन अपने घर में आग लगा देना, घर की चीजों को जला देना, ऐसे काम है, जिन्हें परमात्मा कभी पसंद नहीं कर सकता।

गोदावरी –तो यहँ के लोगों का चुपचाप बैठे रहना चाहिए?

सेठ- नहीं, रोना चाहिए । इस तरह रोना चाहिए, जैसे बच्चे माता के दूध के लिए रोते है।

सहसा होली जली, आग की शिखाएं आसमान से बातें करने लगीं, मानों स्वाधनीता की देवी अग्नि- बस्त्र धारण किए हुए आकाश के देवताओं से गले मिलने जा रही हो ।

दीनानाथ ने खिड़की बन्द कर दी, उनके लिए यह दृश्य भी असह्य था।

गोदावरी इस तरह खड़ी रही, जैसे कोई गाय कसाई के खूंटे पर खड़ी हो । उसी वक्त किसी के गाने का आवाज आयी-

‘वतन की देखिए तकदरी कब बदलती हैं’

गोदावरी के विषाद से भरे हुए ह्रदय में एक चोट लगी । उसने खिड़की खोल दी और नीचे की तरफ झॉँका । होली अब भी जल रही थी और एक अंधा लड़का अपनी खँजरी बजाकर गा रहा था-

‘वतन की देखिए तकदीर कब बदलती है।’

वह खिड़की के सामने पहुंचा तो गोदावरी पे पुकारा- ओ अन्धे !

खड़ा रहा ।

अन्धा खड़ा हो गया। गोदवारी ने सन्दुक खोला, पर उसेमें उसे एक पैसा मिला । नोट ओर रूपये थे, मगर अन्धे फकीर को नोट या रूपये देने का सवाल ही न था पैसे अगर दो –चार मिल जाते, तो इस वक्त वह जरूर दे देती । पर वहां एक ही पैसा था, वह भी इतना घिसा हुआ कि कहार बाजार से लौटा लाया था । किसी दूकानदार ने न लिया था । अन्धे को वह पैसा देते हुए गोदावरी को शर्म आ रही थी। वह जरा देर तक पैसे को हाथ मे लिए संशय में खड़ी रही । तब अन्धे को बुलाया ओर पैसा दे दिया ।

अन्धे ने कहा—माता जी कुछ खाने को दीजिए। आज दिन भर से कुछ नहीं खाया ।

गोदावरी—दिन भर मॉँगता है, तब भी तुझे खाने को नहीं मिलता?

अन्धा- क्या करूं माता, कोई खाने को नहीं देता ।

गोदावरी- इस पैसे का चवैना लेकर खा ले ।

अन्धा- खा लूंगा माता जी, भगवान् आपको खुशी रखे । अब यहीं

सोता हूँ।

2

दूसरे दिन प्रात: काल कॉँग्रेस की तरफ से एक आम जलसा हुआ । मिस्टर सेठ ने विलायती टूथ पाउडर बिलायती ब्रुश से दॉँतो पर मला , विलायती साबुन से नहाया, विलायती चाय विलायती प्यालियों में पी, विलायती बिस्कुट विलायती मक्खन के साथ खाया, विलायती दूध पिया। फिर विलायती सूट धारण करके विलायती सिंगार मुंह में दबाकर घर से निकले, और अपनी मोटर साइकिल पर बैठ फ्लावर शो देखने चले गये ।

गोदावरी को रात भर नींद नहीं आयी थी, दुराशा ओर पराजय की कठिन यन्त्रणा किसी कोड़े की तरह उसे ह्रदय पर पड़ रही थी । ऐसा मालुम होता था कि उसके कंठ में कोई कड़वी चीज अटक गयी है। मिस्टर सेठ का अपने प्रभाव मे लाने की उसने वह सब योजनाएँ की, जो एक रमणी कर सकती है; पर उस भले आदमी पर उसके सारे हाव –भाव, मृदु मुस्कान ओर वाणी- विलास को कोई असर न हुआ । खुद तो स्वदेशी वस्त्रों के व्यवहार करने पर क्या राजी होते, गोदावरी के लिए एक खद्दर की साड़ी लाने पर भी सहमत न हुए । यहँ तक कि गोदाबरी ने उनसे कभी कोई चीज मांगने की कसम खा ली ।

क्रोध और ग्लानि ने उसकी सद्भावना को इस तरह विकृत कर दिया जेसे कोई मैली बस्तु निर्मल जल को दूषित कर देती है उसने सोंचा, ‘जब यह मेरी इतनी सी बात नहीं मान सकते; तब फिर मैं क्या इनके इशारों पर चलूं, क्यों इनकी इच्छाओं की लौंडी बनी रहूं? मैंने इनके हाथ कुछ अपनी आत्मा नहीं बेची है। अगर आज ये चोरी या गबन करें , तो क्या में सजा पाऊँगी? उसी सजा ये खुद झेलेगें । उसका अपराध इनके ऊपर होगा। इन्हें अपने कर्म और वचन का अख्तियार हैं मुझे अपने कर्म और वचन का अख्तियार । यह अपनी सरकार की गुलामी करें, अंगरेजों की चौखट पर नाक रगड़ें, मुझे क्या गरज है कि उसमें उनका सहयोग करूँ ! जिसमें आत्माभिमान नहीं, जिसने अपने को स्वार्थ के हाथों बेच दिया, उसके प्रति अगर मेरे मन में भक्ति न हो तो मेरा दोष नहीं। यह नौकर है या गुलाम ? नौकरी और गुलामी में अन्तर है नौकर कुछ नियमों के अधीन अपना निर्दिष्ट काम करता है। वह नियम स्वामी और सेवक दोनों ही पर लागू होते हैं। स्वामी अगर अपमान करे, अपशब्द कहे तो नौकर उसको सहन करने के लिए मजबूर नहीं। गुलाम के लिए कोई शर्त नहीं, उसकी दैहिक गुलामी पीछे होती है, मानसिक गुलामी पहले ही हो जाती हैं। सरकार ने इनसे कब कहा है कि देशी चीजें न खरीदों।’ सरकारी टिकटों तक पर शब्द लिखे होते हैं ‘स्वेदेशी चीजें खरीदो। इससे विदित है कि सरकार देशी चीजें का निषेध नहीं करती। फिर भी यह महाश्य सुर्खरू बनने की फिक्र में सरकार से भी दो अंगुल आगे बढ़ना चाहते है !

मिस्टर सेठ ने कुछ झेंपते हुए कहा—कल न फ्लावर शो देखने चलोगी?

गोदावरी ने विरक्त मन से कहा- नहीं !

‘बहुत अच्छा तमाशा है।’

‘मैं कॉँग्रेस के जलसे में जा रही हूं ।

मिस्टर सेठ के ऊपर यदि छत गिर पड़ी होती या उन्होंने बिजली का तार हाथ से पकड़ लिया होता, तो भी वह इतने बदहवास न होते । आँखें फाड़कर बोले- तुम कॉग्रेस के जलसे में जाओगी ?

‘हां जरूर जांउगी !,

‘ मै नहीं चाहता कि तुम वहँ जाओ।’

‘अगर तुम मेरी परवाह नहीं करते, तो मेरा धर्म नहीं कि तुम्हारी हर एक आज्ञा का पालन करूँ।’

मिस्टर सेठ ने आंखों मे विष भर कर कहा – नतीजा बुरा होगा ।

गोदावरी मानों तलवार के सामने छाती खोल कर बोली- इसकी

चिंता नहीं, तुम किसी के ईश्वर नहीं हो।

मिस्टर सेठ सूब गर्म पड़े, धमकियॉ दी; आखिर मुंह फेरकर लेटे रहे। प्रात: काल फ्लावर शो जाते समय भी उन्होंने गोदावरी से कुछ न कहा ।

3

गोदावरी जिस समय कँग्रेस के जलसे में पहुंची, तो कई हजार मर्दो और औरतों का जमाव था । मन्त्री ने चन्दे की अपील की थी और कुछ

लोग चन्दा दे रहे थे । गोदावरी उस जगह खड़ी हो गई जहॉँ और स्त्रियॉँ जमा थी ओर देखने लगी कि लोग क्या देते हैं। अधिकाश लोग दो-दो चार-चार आना ही दे रहे थे । वहां ऐसा धनवान था ही कौन? उसने अपनी जेब टटोली, तो एक रूपया निकला । उसने समझा यह काफी है। इसी इन्तजार में थी कि झोली सामने आवे तो उसमें डाल दूँ? सहसा वही अन्धा लड़का, जिसे कि उसने पैसा दिया था, न जाने किधर से आ गया और ज्यों ही चन्दे की झोली उसके सामने पहुँचीं, उसने उसमें कुछ डाल दिया । सबकी आँखें उसकी तरफ उठ गयीं । सबको कुतूहल हो रहा था कि अन्धे ने क्या दिया? कही एक-आध पैसा मिल गया होगा। दिन भर गला फाड़ता है, तब भी तो उस बेचारे को रोटी नहीं मिलती ! अगर यही गाना पिश्वाज और साज के साथ किसी महफिल में होता तो रूपये बरसते; लेकिन सड़क पर गाने वाले अन्धे की कौन परवाह करता है।

झोली में पैसा डालकर अन्धा वहाँ से चल दिया और कुछ दूर जाकर गाने लगा-

‘वतन की देखिए तकदीर कब बदलती है।’

सभापति ने कहा – मित्रों, देखिए, यह वह पैसा है,जो एक गरीब उन्धा लड़का इस झोली में डाल गया है। मेरी आंखों में इस एक पैसें की कीमत किसी अमीर के एक हजार रूपये से कम नहीं । शायद यही इस गरीब की सारी बिसात होगी। जब ऐसे गरीबों की सहानुभूति हमारे साथ है, तो मुझे सत्य की विजय में संदेह नहीं मालूम होता । हमारे यहाँ क्यों इतने फकीर दिखायी देती हैं? या तो इसलिए कि समाज में इन्हें कोई काम नहीं मिलता या दरिद्रता से पैदा हुई बीमारियों के कारण यह अब इस योग्य ही नहीं रह गये कि कुछ काम करें। या भिक्षावृति ने इनमें कोई सामर्थ्य ही नहीं छोड़ी । स्वराज्य के सिवा इन गरीबों का अब उद्धार कौन कर सकता है। देखिए, वह गा रहा है।–

‘वतन की देखिए तकदीर कब बदलती है।’

इस पीड़ित ह्रदय में कितना उत्सर्ग ! क्या अब भी कोई संदेह कर सकता है कि हम किसकी आवाज हैं? (पैसा उपर उठा कर) आपमें कौन इस रत्न को खरीद सकता है?

गोदावरी के मन में जिज्ञासा हुई, क्या वह वही तौ पेसा नहीं है, जो रात मैंने उसे दिया था? क्या उसने सचमुच रात को कुछ नहीं खाया?

उसने जाकर समीप से पैसे को देखा, जो मेज पर रखा दिया गया था। उसका ह्रदय धक् से हो गया । यह वही घिसा हुआ पैसा था।

उस अंधे की दशा, उसके त्याग का स्मरण करके गोदावरी अनुरक्त

हो उठी । कँपते हुए स्वर में बोली – मुझे आप यह पैसा दे दीजिए, मैं पॉँच रूपये दूंगी ।

सभापति ने कहा – एक बहन इस पैसे के दाम पांच रूपये दे रही है।

दूसरी आवाज आयी –दस रुपये।

तीसरी आवाज आयी- बीस रुपये ।

गोदावरी ने इस अन्तिम व्यक्ति की ओर देखा । उसके मुख पर आत्माभिमान झलक रहा था, मानों कह रहा हो कि यहॉँ कौन है, जो मेरी बराबरी कर सके ! गोदावरी के मन मे स्पर्द्धा का भाव जाग उठा । चाहे कुछ हो जाय, इसके हाथ में यह पैसा न जाय । समझता है, इसने बीस रुपये क्या कह दिये, सारे संसार का मोल ले लिया ।

गोदावरी ने कहा – चालीस रूपये ।

उस पुरूष ने तुरंत कहा—पचास रूपये ।

हजारों आँखें गोदावरी की ओर उठ गयीं मानो कह रही हों, अब की आप ही हमारी लाज रखिए ।

गोदावरी ने उस आदमी की ओर देखकर धमकी से मिले हुए स्वर में कहा – सौ रुपये।

धनी आदमी ने भी तुरंत कहा- एकं सौ बीस रूपये ।

लोगों के चेहरे पर हवाइयँ उड़ने लगीं। समझ गयें, इसी के हाथ विजय रही। निराश आंखों से गोदावरी की ओर ताकने लगे; मगर ज्यों ही गोदावरी के मुँह से निकला डेढ़ सौ, कि चारों तरफ तालियॉ पड़ने लगीं, मानो किसी दंगल के दर्शक अपने पहलवान कीविजय पर मतवाले हो गये हों।

उस आदमी ने फिर कहा – पौने दो सौ।

गोदावरी बोली – दो सौ।

फिर चारों तरफ से तालियँ पड़ी। प्रतिद्वंद्वी ने अब मैदान से हट जाने ही मेंअपनी कुशल समझी ।

गोदावरी विजय के गर्व पर नम्रता का पर्दा डाले हुए खड़ी थी और हजारो शुभ कामनाऍं उस पर फुलों की तरह बरस रही थीं।

4

जब लोगो को मालूम हुआ कि यह देवी मिस्टर सेठ की बीबी है।, तो उन्हें ईर्ष्यामय आनंद के साथ उस पर दया भी आयी ।

मिस्टर सेठ अभी फ्लावर शों मे ही थें कि एक पुलिस के अफसर ने उन्हें यह घातक संवाद सुनाया । मिस्टर सेठ सकते में पड़ गये, मानो सारी देह शुन्य पड़ गयी हो । फिर दानों मुटियँ बांध लीं । दांत पीसे, ओठ चबाये और उसी वक्त घर चले । उनकी मोटर –साईकिल कभी इतनी तेज न चली थी।

घर में कदम रखते ही उन्होंने चिनगारियों –भरी ऑंखों से देखते हुए कहा- क्या तुम मेरे मुंह में कालिख पुतवाना चाहती हो?

गोदावरी ने शांत भाव से कहा-कुछ मुह से भी तो कहो या गालियॉँ ही दिये जाओगे? तुम्हारे मुहँ में कालिख लगेगी, तो क्या मेरे मुहँ में न लगेगी? तुम्हारी जड़ खुदेगी, तो मेरे लिए दूसरा कौन-सा सहारा है।

मिस्टर सेठ—सारे शहर में तूफान मचा हुआ है। तुमने मेरे लिए रुपये दिये क्यों?

गोदावरी ने उसी शांत भाव से कहा—इसलिए कि मैं उसे अपना ही रुपया समझती हूँ।

मिस्टर सेठ दॉँत किटकिटा कर बोले—हरगिज नहीं, तुम्हें मेरा रुपया खर्च करने का कोई हक नहीं है।

गोदावरी-बिलकुल गलत, तुम्हारे खर्च करने का तुम्हें जितना अख्तियार है, उतना ही मुझको भी है। हॉँ, जब तलाक का कानून पास करा लोगे और तलाक दे दोगे, तब न रहेगा।

मिस्टर सेठ ने अपना हैट इतने जोर से मेज पर फेंका कि वह लुढ़कता हुआ जमीन पर गिर पड़ा और बोले—मुझे तुम्हारी अक्ल पर अफसोस आता है। जानती हो तुम्हारी इस उद्दंडता का क्या नतीजा होगा? मुझसे जवाब तलब हो जाएगा। बतलाओ, क्या जवाब दूँगा? जब यह जाहिर है कि कांग्रेस सरकार से दुश्मनी कर रही है तो कांग्रेस की मदद करना सरकार के साथ दुश्मनी करनी है।

‘तुमने तो नहीं की कांग्रेस की मदद!’

‘तुमने तो की!’

इसकी सजा मुझे मिलेगी या तुम्हें? अगर मैं चोरी करूँ, तो क्या तुम जेल जाओगे?’

‘चोरी की बात और है, और यह बात और है।’

‘तो क्या कांग्रेस की मदद करना चोरी या डाके से भी बुरा है?’

‘हॉँ, सरकारी नौकर के लिए चोरी या डाके से भी बुरा है।’

‘मैंने यह नहीं समझा था।’

अगर तुमने यह नहीं समझा था, तो तुम्हारी ही बुद्धि का भ्रम था। रोज अखबारों में देखती हो, फिर भी मुझसे पूछती हो। एक कॉँग्रेस का आदमी प्लेटफार्म पर बोलने खड़ा होता है, तो बीसियों सादे कपड़े वाले पुलिस अफसर उसकी रिपोर्ट लेने बैठते हैं। काँग्रेस के सरगनाओं के पीछे कई-कई मुखबिर लगा दिए जाते हैं, जिनका काम यही है कि उन पर कड़ी निगाह रखें। चोरों के साथ तो इतनी सख्ती कभी नहीं की जाती। इसीलिए हजारों चोरियॉँ और डाके और खून रोज होते रहते हैं, किसी का कुछ पता नहीं चलता, न पुलिस इसकी परवाह करती है। मगर पुलिस को जिस मामले में राजनीति की गंध भी आ जाती है। फिर देखो पुलिस की मुस्तैदी। इन्सपेक्टर जरनल से लेकर कांस्टेबिल तक ऐड़ियों तक का जोर लगाते हैं। सरकार को चोरों से भय नहीं। चोर सरकार पर चोट नहीं करता। कॉँग्रेस सरकार को अख्तियार पर हमला करती है, इसलिए सरकार भी अपनी रक्षा के लिए अपने अख्तियार से काम लेती है। यह तो प्रकृति का नियम है।

मिस्टर सेठ आज दफ्तर चले, तो उनके कदम पीछे रह जाते थे! न जाने आज वहॉँ क्या हाल हो। रोज की तरह दफ्तर में पहुँच कर उन्होंने चपरासियों को डॉंटा नहीं, क्लर्कों पर रोब नहीं जमाया, चुपके से जाकर कुर्सी पर बैठ गये। ऐसा मालूम होता था, कोई तलवार सिर पर लटक रही है। साहब की मोटर की आवाज सुनते ही उनके प्राण सूख गये। रोज वह अपने कमरे में बैठ रहते थे। जब साहब आकर बैठ जाते थे, तब आध घण्टे के बाद मिसलें लेकर पहुँचते थे। आज वह बरामदे में खड़े थे, साहब उतरे तो झुककर उन्होंने सलाम किया। मगर साहब ने मुँह फेर लिया।

लेकिन वह हिम्मत नहीं हारे, आगे बढ़कर पर्दा हटा दिया, साहब कमरे में गये, तो सेठ साहब ने पंखा खोल दिया, मगर जान सूखी जाती थी कि देखें, कब सिर पर तलवार गिरती है। साहब ज्यों ही कुर्सी पर बैठे, सेठ ने लपककर, सिगार-केस और दियासिलाई मेज पर रख दी।

एकाएक ऐसा मालूम हुआ, मानो आसमान फट गया हो। साहब गरज रहै थे, तुम दगाबाज आदमी हो!

सेठ ने इस तरफ साहब की तरफ देखा, जैसे उनका मतलब नहीं समझे।

साहब ने फिर गरज कर कहा-तुम दगाबाज आदमी हो।

मिस्टर सेठ का खून गर्म हो उठा, बोले-मेरा तो ख्याल है कि मुझसे बड़ा राजभक्त इस देश में न होगा।

साहब-तुम नमकहारम आदमी है।

मिस्टर सेठ के चेहरे पर सुर्खी आयी-आप व्यर्थ ही अपनी जबान खराब कर रहै हैं।

साहब-तुम शैतान आदमी है।

मिस्टर सेठ की ऑंखों में सुर्खी आयी-आप मेरी बेइज्जती कर रहै

हैं। ऐसी बातें सुनने की मुझे आदत नहीं है।

साहब-चुप रहो, यू ब्लडी। तुमको सरकार पॉँच सौ रूपये इसलिए नहीं देता कि तुम अपने वाइफ के हाथ से कॉँग्रेस का चंदा दिलवाये। तुमको इसलिए सरकार रुपया नहीं देता।

मिस्टर सेठ को अपनी सफाई देने का अवसर मिला। बोले-मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मेरी वाइफ ने सरासर मेरी मर्जी के खिलाफ रुपये दिये हैं। मैं तो उस वक्त फ्लावर शो देखने गया था, जहॉँ मिस फ्रॉँक का गुलदस्ता पॉँच रुपये में लिया। वहॉँ से लौटा, तो मुझे यह खबर मिली।

साहब-ओ! तुम हमको बेवकूफ बनाता है?

यह बात अग्नि-शिला की भॉँति ज्यों ही साहब के मस्तिष्क में घुसी, उनके मिजाज का पारा उबाल के दर्जे तक पहुँच गया। किसी हिंदुस्तानी की इतनी मजाल कि उन्हें बेवकूफ बनाये! वह जो हिंदुस्तान के बादशाह हैं, जिनके पास बड़े-बड़े तालुकेदार सलाम करने आते हैं, जिनके नौकरों को बड़े-बडे रईस नजराना देते हैं, उन्हीं को कोई बेवकूफ बनाये! उसके लिये वह असह्य था! रूल उठा कर दौड़ा।

लेकिन मिस्टर सेठ भी मजबूत आदमी थे। यों वह हर तरह की खुशामद किया करते थे! लेकिन यह अपमान स्वीकार न कर सके। उन्होंने रूल का तो हाथ पर लिया और एक डग आगे आगे बढ़कर ऐसा घूँसा साहब के मुँह पर रसीद किया कि साहब की ऑंखों के सामने अँधेरा छा गया। वह इस मुष्टिप्रहार के लिए तैयार न थे। उन्हें कई बार इसका अनुभव हो चुका था कि नेटिव बहुत शांत, दब्बू और गमखोर होता है। विशेषकर साहबों के सामने तो उनकी जबान तक नहीं खुलती। कुर्सी पर बैठ कर नाक का खून पोंछने लगा। फिर मिस्टर सेठ के उलझने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ीं; मगर दिल में सोच रहा था, इसे कैसे नीचा दिखाऊँ।

मिस्टर सेठ भी अपने कमरे में आ कर इस परिस्थिति पर विचार करने लगे। उन्हें बिलकुल खेद न था; बल्कि वह अपने साहस पर प्रसन्न थे। इसकी बदमाशी तो देखो कि मुझ पर रूल चला दिया! जितना दबता था, उतना ही दबाये जाता था। मेम यारों को लिये घूमा करती है, उससे बोलने की हिम्मत नहीं पड़ती। मुझसे शेर बन गया। अब दौड़ेगा कमिश्नर के पास। मुझे बरखास्त कराये बगैर न छोड़ेगा। यह सब कुछ गोदावरी के कारण हो रहा है। बेइज्जती तो हो ही गयी अब रोटियों को भी मुहताज होना पड़ा। मुझ से तो कोई पूछेगा भी नहीं, बरखास्तगी का परवाना आ जायेगा। अपील कहॉँ होगी? सेक्रेटरी हैं हिन्दुस्तानी, मगर अँगरेजों से भी ज्यादा अँगरेज। होम मेम्बर भी हिन्दुस्तानी हैं, मगर अँगरेजों के गुलाम। गोदावरी के चंदे का हाल सुनते ही उन्हें जूड़ी चढ़आयेगी। न्याय कीकिसी से आशा नहीं, अब यहॉँ से निकल जाने में ही कुशल है।

उन्होंने तुंरत एक इस्तीफा लिखा और साहब के पास भेज दिया। साहब ने उस पर लिख दिया, ‘बरखास्त’।

दोपहर को जब मिस्टर सेठ मुहँ लटकाये हुए घर पहूँचे तो गोदावरी ने पूछा-आज जल्दी कैसे आ गये?

मिस्टर सेठ दहकती हुई ऑखों से देख कर बोले-जिस बात पर लगी थीं, वह हो गयी। अब रोओ, सिर पर हाथ रखके!

गोदावरी-बात क्या हुई, कुछ कहो भी तो?

सेठ-बात क्या हुई, उसने ऑंखें दिखायीं, मैंने चाँटा जमाया और इस्तीफा दे कर चला आया।

गोदावरी-इस्तीफा देने की क्या जल्दी थी?

सेठ-और क्या सिर के बाल नुचवाता? तुम्हारा यही हाल है, तो आज नहीं, कल अलग होना ही पड़ता।

गोदावरी-खैर, जो हुआ, अच्छा ही हुआ। आज से तुम भी कॉँग्रेस में शरीक हो जाओ।

सेठ ने ओठ चबा कर कहा-लजाओगी तो नहीं, ऊपर से घाव पर नमक छिड़कती हो।

गोदावरी-लजाऊँ क्यों, मैं तो खुश हूँ कि तुम्हारी बेड़ियॉँ कट गयीं।

सेठ-आखिर कुछ सोचा है, काम कैसे चलेगा?

गोदावरी-सब सोच लिया है। मैं चल कर दिखा दूँगी। हॉँ, मैं जो कुछ कहूँ, वह तुम किये जाना। अब तक मैं तुम्हारे इशारे पर चलती थी, अब से तुम मेरे इशारे पर चलना। मैं तुमसे किसी बात की शिकायत न करती थी; तुम जो कुछ खिलाते थे खाती थी, जो कुछ पहनाते थे पहनती थी। महल में रखते, महल में रहती। झोपड़ी मे रखते, झोपड़ी में रहती। उसी तरह तुम भी रहना। जो काम करने को कहूँ वह करना। फिर देखूँ कैसे काम नहीं चलता। बड़प्पन सूट-बूट और ठाठ-बाट में नहीं है। जिसकी आत्मा पवित्र हो, वही ऊँचा है। आज तक तुम मेरे पति थे आज से मैं तुम्हारा पति हूँ।

सेठ जी उसकी और स्नेह की ऑंखों से देख कर हँस पड़े।

Sunday, June 14, 2015

चोर बादशाह

बादशाह का नियम था कि रात को भेष बदलकर गज़नी की गलियों में घूमा करता था। एक रात उसे कुछ आदमी छिपछिप कर चलते दिखाई दिये। वह भी उनकी तरफ बढ़ा। चोरों ने उसे देखा तो वे ठहर गये और उससे पूछने लगे, ‘‘भाई, तुम कौन हो? और रात के समय किसलिए घूम रहे हो?’’ बादशाह ने कहा, ‘‘मैं भी तुम्हारा भाई हूं और आजीविका की तलाश में निकला हूं।’’ चोर बड़े प्रसन्न हुए और कहने लगे, ‘‘तूने बड़ा अच्छा किया, जो हमारे साथ आ मिला। जितने आदमी हों, उतनी ही अधिक सफलता मिलती है। चलो, किसी साहूकार के घर चोरी करें।’’ जब वे लोग चलने लगे तो उनमें से एक ने कहा, ‘‘पहले यह निश्चय होना चाहिए कि कौन आदमी किस काम को अच्छी तरह कर सकता है, जिससे हम एक-दूसरे के गुणों को जान जाये जो ज्यादा हुनरमन्द हो उसे नेता बनायें।’’

यह सुनकर हर एक ने आनी-अपनी खूबियां बतलायी। एक बोला, ‘‘मैं कुत्तो की बोली पहचानता हूं। वे जो कुछ कहें, उसे मैं अच्छी तरह समझ लेता हूं। हमारे काम में कुत्तों से बड़ी अड़चन पड़ती है। हम यदि बोली जान लें तो हमारा ख़तरा कम हो सकता है और मैं इस काम को बड़ी अच्छी तरह कर सकता हूं।’’

दूसरा कहने लगा, ‘‘मेरी आंखों में ऐसी शक्ति है कि जिसे अंधेरे में देख लूं, उसे फिर कभी नहीं भूल सकता। और दिन के देखे को अंधेरी रात में पहचान सकता हूं। बहुत से लोग हमें पहचानकर पकड़वा दिया हैं। मैं ऐसे लोगों को तुरन्त भांप लेता हूं और अपने साथियों को सावधान कर देता हूं। इस तरह हमारी रक्षा हो जाती है।’’

तीसरी बोला, ‘‘मुझमें ऐसी शक्ति है कि मज़बूत दीवार में सेंध लगा सकता हूं और यह काम मैं ऐसी फुर्ती और सफाई से करता हूं कि सोनेवालों की आंखें नहीं खुल सकतीं और घण्टों का काम मिनटों में हो जाता है।’’

चौथा बोला, ‘‘मेरी सूंघने की शक्ति ऐसी विचित्र है कि ज़मीन में गड़े हुए धन को वहां की मिट्टी सूंघकर ही बता सकता हूं। मैंने इस काम में इतनी योग्यता प्राप्त की है कि शत्रु भी सराहना करते हैं। लोग प्राय: धन को धरती में ही गाड़कर रखते हैं। इस वक्त यह हुनर बड़ा काम देता है। मैं इस विद्या का पूरा पंडित हूं। मेरे लिए यह काम बड़ा सरल हैं।’’

पांचवे ने कहा, ‘‘मेरे हाथों में ऐसी शक्ति है कि ऊंचे-ऊंचे महलों पर बिना सीढ़ी के चढ़ सकता हूं और ऊपर पहुंचकर अपने साथियों को भी चढ़ा सकता हूं। तुममें तो कोई ऐसा नहीं होगा, जो यह काम कर सके।’’

इस तरह जब सब लोग अपने-अपने गुण बता चुके तो नये चोर से बोले, ‘‘तुम भी अपना कमाल बताओ, जिससे हमें अन्दाज हो कि तुम हमारे काम में कितनी सहायता कर सकते है।’’ बादशाह ने जब यह सुना तो खुश हो कर कहने लगा, ‘‘मुझमें ऐसा गुण है, जो तुममें से किसी में भी नहीं है। और वह गुण यह है कि मैं अपराधों को क्षमा करा सकता हूं। अगर हम लोग चोरी करते पकड़े जायें तो अवश्य सजा पायेंगे। परन्तु मेरी दाढ़ी में यह खूबी है कि उसके हिलते ही अपराध क्षमा हो जाते हैं। तुम चोरी करके भी साफ बच सकते हो। देखो, कितनी बड़ी ताकत है मेरी दाढ़ी में!’’

बादशाह की यह बात सुनकर सबने एक स्वर में कहा, ‘‘भाई तू ही हमारा नेता है। हम सब तेरी ही अधीनता में काम करेंगे, ताकि अगर कहीं पकड़े जायें तो बख्शे जा सकें। हमारा बड़ा सौभाग्य है कि तुझ-जैसा शक्तिशाली साथी हमें मिला।’’

इस तरह सलाह करके ये लोग वहां से चले। जब बादशाह के महल के पास पहुंचे तो कुत्ता भूंका। चोर ने कुत्ते की बोली पहचानकर साथियों से कहा कि यह कह रहा है कि बादशाह हैं। इसलिए सावधान होकर चलना चाहिए। मगर उसकी बात किसीने नहीं मानी। जब नेता आगे बढ़ता चला गया तो दूसरों ने भी उसके संकेत की कोई परवा नहीं की। बादशाह के महल के नीचे पहुंचकर सब रुक गये और वहीं चोरी करने का इरादा किया। दूसरा चोर उछलकर महल पर चढ़ गया। और फिर उसने बाकी चोरों को भी खींच लिया। महल के भीतर घुसकर सेंध लगायी और खूब लूट हुई। जिसके जो हाथ लगा, समेटता गया। जब लूट चुके तो चलने की तैयारी हुई। जल्दी-जल्दी नीचे उतरे और अपना-अपना रास्ता लिया। बादशाह ने सबका नाम-धाम पूछ लिया था। चोर माल-असबाब लेकर चंपत हो गये।

बादशाह ने मन्त्री को आज्ञा दी कि तुम अमुक स्थान में तुरन्त सिपाही भेजो और फलां-फलां लोगों को गिरफ्तार करके मेरे सामने हाजिर करो। मन्त्री ने फौरन सिपाही भेज दिये। चोर पकड़े गये और बादशाह के सामने पेश किये गए। जब इन लोगों ने बादशाह को देखा तो दूसरे चोर ने कहा है कि ‘‘बड़ा गजब हो गया! रात चोरी में बादशाह हमारे साथ था

और यह वही नया चोर था, जिसने कहा था कि ‘‘मेरी दाढ़ी में वह शक्ति है कि उसके हिलते ही अपराध क्षमा हो जाते हैं।’’

सब लोग साहस करके आगे बढ़े और बादशाह का अभिवादन किया। बादशाह ने पूछा, ‘‘तुमने चोरी की है?’’ सबने एक स्वर में जवाब दिया, ‘‘हां, हूजर ! यह अपराध हमसे ही हुआ है।’’

बादशाह ने पूछा, ‘‘तुम लोग कितने थे?’’

चोरों ने कहा, ‘‘हम कुल छ: थे।’’

बादशाह ने पूछा, ‘‘छठा कहां है?’’

चोरों ने कहां, ‘‘अन्नदाता, गुस्ताखी माफ हो। छठे आप ही थे।’’

चारों की यह बात सुनकर सब दरबारी अचंभे में रह गये। इतने में बादशाह ने चोरों से फिर पूछा, ‘‘अच्छा, अब तुम क्या चाहते हो?’’

चोरों ने कहा, ‘‘अन्नदाता, हममें से हरएक ने अपना-अपना काम कर दिखाया। अब छठे की बारी है। अब आप अपना हुनर दिखायें, जिससे हम अपराधियों की जान बचे।’’

यह सुनकर बादशाह मुस्कराया और बोला, ‘‘अच्छा! तुमको माफ किया जाता है। आगे से ऐसा काम मत करना।’’

[संसार का बादशाह परमेश्वर तुम्हारे आचरणों को देखने के लिए सदैव तुम्हारे साथ रहता है। उसके साथ समझकर तुम्हें हमेशा उससे डरते रहना चाहिए और बुरे कामों की ओर कभी ध्यान नहीं देना चाहिए।      -- रूमी

Saturday, May 16, 2015

भीतरी और बाहरी सम्पदा

 

एक महर्षि थे। उनका नाम था कणाद। किसान जब अपना खेत काट लेते थे तो उसके बाद जो अन्न-कण पड़े रह जाते थे, उन्हें बीन करके वे अपना जीवन चलाते थे। इसी से उनका यह नाम पड़ गया था।

उन जैसा दरिद्र कौन होगा! देश के राजा को उनके कष्ट का पता चला। उसने बहुत-सी धन-सामग्री लेकर अपने मन्त्री को उन्हें भेंट करने भेजा। मंत्री पहुंचा तो महर्षि ने कहा,

“मै सकुशल हूं। इस धन को तुम उन लोगों में बांट दो, जिन्हें इसकी जरुरत है।”

इस भांति राजा ने तीन बार अपने मंत्री को भेजा और तीनों बार महर्षि ने कुछ भी लेने से इन्कार कर दिया।

अंत में राजा स्वयं उनके पास गया। वह अपने साथ बहुत-सा धन ले गया। उसने महर्षि से प्रार्थना की कि वे उसे स्वीकार कर लें, किन्तु वे बोले, “उन्हें दे दो, जिनके पास कुछ नहीं है। मेरे पास तो सबकुछ है।”

राजा को विस्मय हुआ! जिसके तन पर एक लंगोटी मात्र है, वह कह रहा है कि उसके पास सबकुछ है। उसने लौटकर सारी कथा अपनी रानी से कही। वह बोली, “आपने भूल की। ऐसे साधु के पास कुछ देने के लिए नहीं, लेने के लिए जाना चाहिए।”

राजा उसी रात महर्षि के पास गया और क्षमा मांगी।

कणाद ने कहा, “गरीब कौन है? मुझे देखो और अपने को देखो। बाहर नहीं, भीतर। मैं कुछ भी नहीं मांगता, कुछ भी नहीं चाहता। इसलिए अनायास ही सम्राट हो गया हूं।”

एक सम्पदा बाहर है, एक भीतर है। जो बाहर है,वह आज या कल छिन ही जाती है। इसलिए जो जानते हैं, वे उसे सम्पदा नहीं, विपदा मानते हैं। जो भीतर है, वह मिलती है तो खोती नहीं। उसे पाने पर फिर कुछ भी पाने को नहीं रह जाता।

सच्चाई - हमारी बोध कथाएँ

 

हिमालय के पर्वतीय प्रदेश के कुमायूं नामक स्थान का राजा एक बार अल्मोड़े की घाटी में शिकार खेलने गया। उस समय वह स्थान घने जंगल से ढका था।

एक खरगोश झाड़ियों में से निकला। राजा ने उसका पीछा किया, किंतु अचानक वह खरगोश चीते में बदल गया और शीघ्र ही दृष्टि से ओझल हो गया।

उस आश्चर्यजनक घटना से स्तंभित हुए राजा ने पंडितों की एक सभा बुलाई और उनसे इसका अर्थ पूछा।

उन्होंने उत्तर दिया, “इसका अर्थ यह है कि जिस स्थान पर चीता दृष्टि से ओझल हुआ था, वहां आपको एक नया शहर बसाना चाहिए, क्योंकि चीते केवल उसी स्थान से भाग जाते हैं, जहां मनुष्यों को एक बड़ी संख्या में बसना हो।”

अतएव नया शहर बसाने के लिए मजदूर लोग काम पर लगा दिये गए। अंत में जमीन को कठोरता देखने के लिए एक स्थान पर उन्होंने लोहे की एक मोटी कील गाड़ी। उस समय अचानक पृथ्वी में एक हल्का-सा कंपन हो उठा।

“ठहरो!” पंडित लोग चिल्ला पड़े, “इसकी नोक सर्पराज शेषनाग की देह में धंस गई है। अब यहां शहर नहीं बनाना चाहिए।”

जब वह लोहे की कील पृथ्वी से बाहर निकाली गई तो वह वास्तव में शेषनाग के रक्त से लाल हो रही थी।

“यह तो बड़े दु:ख की बात है”, राजा बोला, “हम यहां शहर बनाने का निश्चय कर चुके हैं, इसलिए अब बनाना ही होगा।”

पंडितों ने क्रोध में आकर भविष्यवाणी की कि शहर पर कोई भारी विपत्ति आयेगी और राजा का अपना वंश भी शीघ्र ही नष्ट हो जायगा।

जमीन वहां की उपजाऊ थी और पानी भी खूब था। छ:सौ साल से अल्मोड़ा शहर उस पहाड़ पर बसा हुआ है और उसके चारों ओर फैले खेत बढ़िया फसलें पैदा करते हैं।

इस प्रकार बुद्धि रखते हुए भी वे पंडित अपनी भविष्यवाणी में गलत निकले। नि:संदेह वे सच्चे थे और उन्हें विश्वास था कि वे सत्य कह रहे हैं, किंतु लोग ऐसी गलती प्राय: करते हैं और अंध-विश्वास को वास्तविकता समझ लेते हैं।

संसार अंधविश्वासों से भरा पड़ा। सत्य को ढूंढ़ने का सबसे अच्छ तरीका यह है कि मनुष्य सदा अपने विचारों, कार्यों और वचनों में अधिकाधिक सच्चे और निष्कपट रहें, क्योंकि दूसरों को सब बातों में धोखा देना छोड़कर ही हम अपने-आपको कम-से-कम धोखा देना सीखते हैं।

Friday, May 8, 2015

सिंहासन बत्तीसी - 4

 

राजा विक्रमादित्य ने एक बार बड़ा ही आलीशान महल बनवाया। उसमें कहीं जवाहरात जड़े थे तो कहीं सोने और चांदी का काम हो रहा था। उसके द्वार पर नीलम के दो बड़े-बड़े नगीने लगे थे, जिससे किसी की नजर न लगे। उसमें सात खण्ड थे। उसके तैयार होने में बरसों लगे। जब वह तैयार हो गया तो दीवान ने जाकर राजा को खबर दी। एक ब्राह्यण को साथ लेकर राजा उसे देखने गया। महल को देखकर ब्राह्यण ने कहा, "महाराज ! इसे तो मुझे दान में दे दो।" ब्राह्यण का इतना कहना था कि राजा ने उस महल को तुंरत उसे दान कर दिया। ब्राह्यण बहुत प्रसन्न हुआ अपने कुनबे के साथ उसमें रहने लगा ।

एक दिन रात को लक्ष्मी आयी और बोली, "मैं कहां गिरुं ?" ब्राह्यण समझा कि कोई भूत है। वह डर के मारे वहां से भागा और राजा को सब हाल कह सुनाया। राजा ने दीवान को बुलाकर कहा, "महल का जितना मूल्य है, वह ब्राह्यण को दे दो।"

इसके बाद राजा स्वयं जाकर महल में रहने लगा। रात को लक्ष्मी आयी और उसने वही सवाल किया। राजा ने तत्काल उतर दिया कि मेरे पलंग को छोड़कर जहां चाहों गिर पड़ों। राजा के इतना कहते ही सारे नगर पर सोना बरसा । सवेरे दीवान ने राजा को खबर दी तो राजा ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि जिसकी हद में जितना सोना हो, वह ले ले।

इतना कहकर पुतली बोली, " महाराज ! इतना था विक्रमादित्य प्रजा का हितकारी तुम किस तरह उसके सिंहासन पर बैठने की हिम्मत करते हो?"

वह साइत भी निकल गई। अगले दिन फिर राजा सिंहासन पर बैठने को उसकी ओर बढ़ा कि पांचवी पुतली लीलावती बोली, "राजन् ! ठहरों। पहले मुझसे विक्रमादित्य के गुण सुन लो।"

Sunday, March 8, 2015

सभ्यता का रहस्य

 

योंतो मेरी समझ में दुनिया की एक हजार एक बातें नहीं आती—जैसे लोग प्रात:काल उठते ही बालों पर छुरा क्यों चलाते हैं ? क्या अब पुरुषों में भी इतनी नजाकत आ गयी है कि बालों का बोझ उनसे नहीं सँभलता ? एक साथ ही सभी पढ़े-लिखे आदमियों की आँखें क्यों इतनी कमजोर हो गयी है ? दिमाग की कमजोरी ही इसका कारण है या और कुछ? लोग खिताबों के पीछे क्यों इतने हैरान होते हैं ? इत्यादि—लेकिन इस समय मुझे इन बातों से मतलब नहीं। मेरे मन में एक नया प्रश्न उठ रहा है और उसका जवाब मुझे कोई नहीं देता। प्रश्न यह है कि सभ्य कौन है और असभ्य कौन ? सभ्यता के लक्षण क्या हैं ? सरसरी नजर से देखिए, तो इससे ज्यादा आसान और कोई सवाल ही न होगा। बच्चा-बच्चा इसका समाधान कर सकता है। लेकिन जरा गौर से देखिए, तो प्रश्न इतना आसान नहीं जान पड़ता। अगर कोट-पतलून पहनना, टाई-हैट कालर लगाना, मेज पर बैठकर खाना खाना, दिन में तेरह बार कोको या चाय पीना और सिगार पीते हुए चलना सभ्यता है, तो उन गोरों को भी सभ्य कहना पड़ेगा, जो सड़क पर बैठकर शाम को कभी-कभी टहलते नजर आते हैं; शराब के नशे से आँखें सुर्ख, पैर लड़खड़ाते हुए, रास्ता चलनेवालों को अनायास छेड़ने की धुन ! क्या उन गोरों को सभ्य कहा जा सकता है ? कभी नहीं। तो यह सिद्ध हुआ कि सभ्यता कोई और ही चीज है, उसका देह से इतना सम्बन्ध नहीं है जितना मन से।

2

 

मेरे इने-गिने मित्रों में एक राय रतनकिशोर भी हैं। आप बहुत ही सहृदय, बहुत ही उदार, बहुत शिक्षित और एक बड़े ओहदेदार हैं। बहुत अच्छा वेतन पाने पर भी उनकी आमदनी खर्च के लिए काफी नहीं होती। एक चौथाई वेतन तो बँगले ही की भेंट हो जाती है। इसलिए आप बहुधा चिंतित रहते हैं। रिश्वत तो नहीं लेते—कम-से-कम मैं नहीं जानता, हालाँकि कहने वाले कहते हैं—लेकिन इतना जानता हूँ कि वह भत्ता बढ़ाने के लिए दौरे पर बहुत रहते हैं, यहाँ तक कि इसके लिए हर साल बजट की किसी दूसरे मद से रुपये निकालने पड़ते हैं। उनके अफसर कहते हैं, इतने दौरे क्यों करते हो, तो जवाब देते हैं, इस जिले का काम ही ऐसा है कि जब तक खूब दौरे न किए जाएँ रिआया शांत नहीं रह सकती। लेकिन मजा तो यह है कि राय साहब उतने दौरे वास्तव में नहीं करते, जितने कि अपने रोजनामचे में लिखते हैं। उनके पड़ाव शहर से पचास मील पर होते हैं। खेमे वहॉँ गड़े रहते हैं, कैंप के अमले वहाँ पड़े रहते हैं और राय साहब घर पर मित्रों के साथ गप-शप करते रहते हैं, पर किसी की मजाल है कि राय साहब की नेकनीयती पर सन्देह कर सके। उनके सभ्य पुरुष होने में किसी को शंका नहीं हो सकती।

एक दिन मैं उनसे मिलने गया। उस समय वह अपने घसियारे दमड़ी को डाँट रहे थे। दमड़ी रात-दिन का नौकर था, लेकिन घर रोटी खाने जाया करता था। उसका घर थोड़ी ही दूर पर एक गाँव में था। कल रात को किसी कारण से यहाँ न आ सका। इसलिए डाँट पड़ रही थी।

राय साहब—जब हम तुम्हें रात-दिन के लिए रखे हुए हैं, तो तुम घर पर क्यों रहे ? कल के पैसे कट जायेंगे।

दमड़ी—हजूर, एक मेहमान आ गये थे, इसी से न आ सका।

राय साहब—तो कल के पैसे उसी मेहमान से लो।

दमड़ी—सरकार, अब कभी ऐसी खता न होगी।

राय साहब—बक-बक मत करो।

दमड़ी—हजूर......

राय साहब—दो रुपये जुरमाना।

दमड़ी रोता चला गया। रोजा बख्शाने आया था, नमाज़ गले पड़ गयी। दो रुपये जुरमाना ठुक गया। खता यही थी कि बेचारा कसूर माफ कराना चाहता था।

यह एक रात को गैरहाज़िर होने की सजा थी ! बेचारा दिन-भर का काम कर चुका था, रात को यहाँ सोया न था, उसका दण्ड ! और घर बैठे भत्ते उड़ानेवाले को कोई नहीं पूछता ! कोई दंड नहीं देता। दंड तो मिले और ऐसा मिले कि जिंदगी-भर याद रहे; पर पकड़ना तो मुश्किल है। दमड़ी भी अगर होशियार होता, तो जरा रात रहे आकर कोठरी में सो जाता। फिर किसे खबर होती कि वह रात को कहाँ रहा। पर गरीब इतना चंट न था।

3

दमड़ी के पास कुल छ: बिस्वे जमीन थी। पर इतने ही प्राणियों का खर्च भी था। उसके दो लड़के, दो लड़कियाँ और स्त्री, सब खेती में लगे रहते थे, फिर भी पेट की रोटियाँ नहीं मयस्सर होती थीं। इतनी जमीन क्या सोना उगल देती ! अगर सब-के-सब घर से निकल मजदूरी करने लगते, तो आराम से रह सकते थे; लेकिन मौरूसी किसान मजदूर कहलाने का अपमान न सह सकता था। इस बदनामी से बचने के लिए दो बैल बाँध रखे थे ! उसके वेतन का बड़ा भाग बैलों के दाने-चारे ही में उड़ जाता था। ये सारी तकलीफें मंजूर थीं, पर खेती छोड़कर मजदूर बन जाना मंजूर न था। किसान की जो प्रतिष्ठा है, वह कहीं मजदूर की हो सकती है, चाहे वह रुपया रोज ही क्यों न कमाये ? किसानी के साथ मजदूरी करना इतने अपमान की बात नहीं, द्वार पर बँधे हुए बैल हुए बैल उसकी मान-रक्षा किया करते हैं, पर बैलों को बेचकर फिर कहाँ मुँह दिखलाने की जगह रह सकती है !

एक दिन राय साहब उसे सरदी से काँपते देखकर बोले—कपड़े क्यों नहीं बनवाता ? काँप क्यों रहा है ?

दमड़ी—सरकार, पेट की रोटी तो पूरा ही नहीं पड़ती, कपड़े कहाँ से बनवाऊँ ?

राय साहब—बैलों को बेच क्यों नहीं डालता ? सैकड़ों बार समझा चुका, लेकिन न-जाने क्यों इतनी मोटी-सी बात तेरी समझ में नहीं आती।

दमड़ी—सरकार, बिरादरी में कहीं मुँह दिखाने लायक न रहूँगा। लड़की की सगाई न हो पायेगी, टाट बाहर कर दिया जाऊँगा।

राय साहब—इन्हीं हिमाकतों से तुम लोगों की यह दुर्गति हो रही है। ऐसे आदमियों पर दया करना भी पाप है। (मेरी तरफ फिर कर) क्यों मुंशीजी, इस पागलपन का भी कोई इलाज है ? जाड़ों मर रहे हैं, पर दरवाजे पर बैल जरूर बाँधेंगे।

मैंने कहा—जनाब, यह तो अपनी-अपनी समझ है।

राय साहब—ऐसी समझ को दूर से सलाम कीजिए। मेरे यहॉं कई पुश्तों से जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाता था। कई हजार रुपयों पर पानी फिर जाता था। गाना होता था; दावतें होती थीं, रिश्तेदारों को न्योते दिये जाते थे, गरीबों को कपड़े बाँटे जाते थे। वालिद साहब के बाद पहले ही साल मैंने उत्सव बन्द कर दिया। फायदा क्या ? मुफ्त में चार-पाँच हजार की चपत खानी पड़ती थी। सारे कसबे में वावेला मचा, आवाजें कसी गयीं, किसी ने नास्तिक कहा, किसी ने ईसाई बनाया लेकिन यहाँ इन बातों की क्या परवा ! आखिर थोड़े ही दिनों में सारा कोलाहल शान्त हो गया। अजी, बड़ी दिल्लगी थी। कसबे में किसी के यहाँ शादी हो, लकड़ी मुझसे ले ! पुश्तों से यह रस्म चली आती थी। वालिद तो दूसरों से दरख्त मोल लेकर इस रस्म को निभाते थे। थी हिमाकत या नहीं ? मैंने फौरन लकड़ी देना बन्द कर दिया। इस पर भी लोग बहुत रोये-धोये, लेकिन दूसरों का रोना-धोना सुनूँ, या अपना फायदा देखूँ। लकड़ी से कम-से-कम 500)रुपये सलाना की बचत हो गयी। अब कोई भूलकर भी इन चीजों के लिए दिक करने नहीं आता।

मेरे दिल में फिर सवाल पैदा हुआ, दोनों में कौन सभ्य है, कुल-प्रतिष्ठा पर प्राण देनेवाले मूर्ख दमड़ी; या धन पर कुल-मर्यादा को बलि देनेवाले राय रतन किशोर !

4

 

राय साहब के इजलास में एक बड़े मार्के का मुकदमा पेश था। शहर का एक रईस खून के मामले में फँस गया था। उसकी जमानत के लिए राय साहब की खुशामदें होने लगीं। इज्जत की बात थी। रईस साहब का हुक्म था कि चाहे रियासत बिक जाय, पर इस मुकदमे से बेदाग निकल जाऊँ। डालियॉँ लगाई गयीं, सिफारिशें पहुँचाई गयीं, पर राय साहब पर कोई असर न हुआ। रईस के आदमियों को प्रत्यक्ष रूप से रिश्वत की चर्चा करने की हिम्मत न पड़ती थी। आखिर जब कोई बस न चला, तो रईस की स्त्री से मिलकर सौदा पटाने की ठानी।

रात के दस बजे थे। दोनों महिलाओं में बातें होने लगीं। 20 हजार की बातचीत थी ! राय साहब की पत्नी तो इतनी खुश हुईं कि उसी वक्त राय साहब के पास दौड़ी हुई आयी और कहनें लगी—ले लो, ले लो

राय साहब ने कहा—इतनी बेसब्र न हो। वह तुम्हें अपने दिल में क्या समझेंगी ? कुछ अपनी इज्जत का भी खयाल है या नहीं ? माना कि रकम बड़ी है और इससे मैं एकबारगी तुम्हारी आये दिन की फरमायशों से मुक्त हो जाऊँगा, लेकिन एक सिविलियन की इज्जत भी तो कोई मामूली चीज नहीं है। तुम्हें पहले बिगड़कर कहना चाहिए था कि मुझसे ऐसी बेदूदी बातचीत करनी हो, तो यहाँ से चली जाओ। मैं अपने कानों से नहीं सुनना चाहती।

स्त्री—यह तो मैंने पहले ही किया, बिगड़कर खूब खरी-खोटी सुनायीं। क्या इतना भी नहीं जानती ? बेचारी मेरे पैरों पर सर रखकर रोने लगी।

राय साहब—यह कहा था कि राय साहब से कहूँगी, तो मुझे कच्चा ही चबा जायेंगे ?

यह कहते हुए राय साहब ने गदगद होकर पत्नी को गले लगा लिया।

स्त्री—अजी, मैं न-जाने ऐसी कितनी ही बातें कह चुकी, लेकिन किसी तरह टाले नहीं टलती। रो-रोकर जान दे रही है।

राय साहब—उससे वादा तो नहीं कर लिया ?

स्त्री—वादा ? मैं रुपये लेकर सन्दूक में रख आयी। नोट थे।

राय साहब—कितनी जबरदस्त अहमक हो, न मालूम ईश्वर तुम्हें कभी समझ भी देगा या नहीं।

स्त्री—अब क्या देगा ? देना होता, तो दे न दी होती।

राय साहब—हाँ मालूम तो ऐसा ही होता है। मुझसे कहा तक नहीं और रुपये लेकर सन्दूक में दाखिल कर लिए ! अगर किसी तरह बात खुल जाय, तो कहीं का न रहूँ।

स्त्री—तो भाई, सोच लो। अगर कुछ गड़बड़ हो, तो मैं जाकर रुपये लौटा दूँ।

राय साहब—फिर वही हिमाकत ! अरे, अब तो जो कुछ होना था, हो चुका। ईश्वर पर भरोसा करके जमानत लेनी पड़ेगी। लेकिन तुम्हारी हिमाकत में शक नहीं। जानती हो, यह साँप के मुँह में उँगली डालना है। यह भी जानती हो कि मुझे ऐसी बातों से कितनी नफरत है, फिर भी बेसब्र हो जाती हो। अबकी बार तुम्हारी हिमाकत से मेरा व्रत टूट रहा है। मैंने दिल में ठान लिया था कि अब इस मामले में हाथ न डालूँगा, लेकिन तुम्हारी हिमाकत के मारे जब मेरी कुछ चलने भी पाये ?

स्त्री—मैं जाकर लौटाये देती हूँ।

राय साहब—और मैं जाकर जहर खाये लेता हूँ।

इधर तो स्त्री-पुरुष में यह अभिनय हो रहा था, उधर दमड़ी उसी वक्त अपने गाँव के मुखिया के खेत से जुआर काट रहा था। आज वह रात-भर की छुट्टी लेकर घर गया था। बैलों के लिए चारे का एक तिनका भी नहीं है। अभी वेतन मिलने में कई दिन की देर थी, मोल ले न सकता था। घर वालों ने दिन को कुछ घास छीलकर खिलायी तो थी, लेकिन ऊँट के मुँह में जीरा। उतनी घास से क्या हो सकता था। दोनों बैल भूखे खड़े थे। दमड़ी को देखते ही दोनों पूँछें खड़ी करके हुँकारने लगे। जब वह पास गया तो दोनों उसकी हथेलियाँ चाटने लगे। बेचारा दमड़ी मन मसोसकर रह गया। सोचा, इस वक्त तो कुछ हो नहीं सकता, सबेरे किसी से कुछ उधार लेकर चारा लाऊँगा।

लेकिन जब ग्यारह बजे रात उसकी आँखें खुलीं, तो देखा कि दोनों बैल अभी तक नाँद पर खड़े हैं। चाँदनी रात थी, दमड़ी को जान पड़ा कि दोनों उसकी ओर उपेक्षा और याचना की दृष्टि से देख रहे हैं। उनकी क्षुधा-वेदना देखकर उसकी आँखें सजल हो आयीं। किसान को अपने बैल अपने लड़कों की तरह प्यारे होते हैं। वह उन्हें पशु नहीं, अपना मित्र और सहायक समझता। बैलों को भूखे खड़े देखकर नींद आँखों से भाग गयी। कुछ सोचता हुआ उठा। हँसिया निकाली और चारे की फिक्र में चला। गाँव के बाहर बाजरे और जुआर के खेत खड़े थे। दमड़ी के हाथ काँपने लगे। लेकिन बैलों की याद ने उसे उत्तेजित कर दिया। चाहता, तो कई बोझ काट सकता था; लेकिन वह चोरी करते हुए भी चोर न था। उसने केवल उतना ही चारा काटा, जितना बैलों को रात-भर के लिए काफी हो। सोचा, अगर किसी ने देख भी लिया, तो उससे कह दूँगा, बैल भूखे थे, इसलिए काट लिया। उसे विश्वास था कि थोड़े-से चारे के लिए कोई मुझे पकड़ नहीं सकता। मैं कुछ बेचने के लिए तो काट नहीं रहा हूँ; फिर ऐसा निर्दयी कौन है, जो मुझे पकड़ ले। बहुत करेगा, अपने दाम ले लेगा। उसने बहुत सोचा। चारे का थोड़ा होना ही उसे चोरी के अपराध से बचाने को काफी था। चोर उतना काटता, जितना उससे उठ सकता। उसे किसी के फायदे और नुकसान से क्या मतलब ? गाँव के लोग दमड़ी को चारा लिये जाते देखकर बिगड़ते जरूर, पर कोई चोरी के इलजाम में न फँसाता, लेकिन संयोग से हल्के के थाने का सिपाही उधर जा निकला। वह पड़ोस के एक बनिये के यहाँ जुआ होने की खबर पाकर कुछ ऐंठने की टोह में आया था। दमड़ी को चारा सिर पर उठाते देखा, तो सन्देह हुआ। इतनी रात गये कौन चारा काटता है ? हो न हो, कोई चोरी से काट रहा है, डाँटकर बोला—कौन चारा लिए जाता है ? खड़ा रह!

दमड़ी ने चौककर पीछे देखा, तो पुलिस का सिपाही ! हाथ-पाँव फूल गये, काँपते हुए बोला—हुजूर, थोड़ा ही-सा काटा है, देख लीजिए।

सिपाही—थोड़ा काटा हो या बहुत, है तो चोरी। खेत किसका है ?

दमड़ी—बलदेव महतो का।

सिपाही ने समझा था, शिकार फँसा, इससे कुछ ऐंठँगा; लेकिन वहाँ क्या रखा था। पकड़कर गाँव में लाया और जब वहाँ भी कुछ हत्थे चढ़ता न दिखाई दिया तो थाने ले गया। थानेदार ने चालान कर दिया। मुकदमा राय साहब ही के इजलास में पेश किया।

राय साहब ने दमड़ी को फँसे हुए देखा, तो हमदर्दी के बदले कठोरता से काम लिया। बोले—यह मेरी बदनामी की बात है। तेरा क्या बिगड़ा, साल-छ: महीने की सजा हो जायेगी, शर्मिन्दा तो मुझे होना पड़ रहा है ! लोग यही तो कहते होंगे कि राय साहब के आदमी ऐसे बदमाश और चोर हैं। तू मेरा नौकर न होता, तो मैं हलकी सजा देता; लेकिन तू मेरा नौकर है, इसलिए कड़ी-से-कड़ी सजा दूँगा। मैं यह नहीं सुन सकता कि राय साहब ने अपने नौकर के साथ रिआयत की।

यह कहकर राय साहब ने दमड़ी को छ: महीने की सख्त कैद का हुक्म सुना दिया।

उसी दिन उन्होंने खून के मुकदमे में जमानत ले ली। मैंने दोनों वृत्तान्त सुने और मेरे दिल में यह ख्याल और भी पक्का हो गया कि सभ्यता केवल हुनर के साथ ऐब करने का नाम है। आप बुरे-से-बुरा काम करें, लेकिन अगर आप उस पर परदा डाल सकते हैं, तो आप सभ्य हैं, सज्जन हैं, जेन्टिलमैन हैं। अगर आप में यह सिफ़त नहीं तो आप असभ्य हैं, गँवार हैं, बदमाश हैं। यह सभ्यता का रहस्य है !