Sunday, January 31, 2016

सिंहासन बत्तीसी - 7

अगले दिन जब वह ऐसा करने लगा तो कोमुदी नाम की सातवीं पुतली उसके पैरों में आ गिरी। बोली,

"जरा मेरी बात सुन लो, तब सिंहासन पर बैठना।"

: ७ :

एक दिन राजा विक्रमादित्य सो रहा था। आधी रात बीत चुकी थी। अचानक उसे किसी के रोने की आवाज सुनायी दी। राजा ढाल-तलवार लेकर, जिधर से आवाज आ रही थी, उधर चल पड़ा। चलते-चलते नदी पर पहुंचा। देखता क्या है कि एक बड़ी सुन्दर तरुण स्त्री धाड़े मार-मारकद रो रही है। राजा ने पूछा तो उसने कहा कि मेरा आदमी चोरी करता था। एक दिन कोतवाल ने उसे पकड़ लिया और सूली पर लटका दिया। मैं उसे प्यार से खाना खिलाने आयी हूं, पर सूली इतनी ऊंची है कि मेरा हाथ उसके मुंह तक नहीं पहुंच पाता।

राजा ने कहा, "इसमें रोने की क्या बात है? तुम मेरे कन्धे पर चढ़कर उसे खिला दो।"

वह स्त्री थी डायन। राजा के कन्धे पर सवार होकर उस आदमी को खाने लगी। पेट भरकर वह नीचे उतरी। राजा से बोली,"मैं तुमसे बहुत खुश हूं। जो चाहो सो मांगो।" राजा ने कहा, "अच्छा, तो मुझे अन्नपूर्णा दे दो।" वह बोली, "अन्नपूर्णा तो मेरी छोटी बहन के पास है। तुम मेरे साथ चलो, दे दूंगी।"

वे दोनों नदी के किनारे एक मकान पर पहुंचे। वहां उस स्त्री ने ताली बजाई। बहन आयी। स्त्री ने उसे सब बात बताई और कहा कि इसे अन्नपूर्णा दे दो। बहन ने हंसकर उसे एक थैली दी और कहा, ‘जो भी खाने की चीज चाहोगे, इसमें से मिल जायगी।" राजा ने खुश उसे ले लिया और वहां से चल दिया। नदी पर जाकर उसने स्नान-ध्यान पूजा-पाठ किया। इतने में एक ब्राह्यण वहां आया। उसने कहा, "भूख लगी है।" राजा ने पूछा, "पूछा, "क्या खाओगे ?" उसने जो बताया, वही राजा ने थैली में हाथ डालकर निकालकर दे दिया। ब्राह्यण ने पेट भरकर खाया, फिर बोला, "कुछ दक्षिणा भी तो दो।" राजा ने कहा, "जो मांगोगे, दूगां।" ब्राह्यण ने वही थैली मांग ली। राजा ने खुशी-खुशी दे दी और अपने घर चला आया।

पुतली बोली, "हे राजन् ! विक्रमादित्य को देखो, इतनी मेहनत से पाई थैली ब्राह्यण को देते ने लगी। तुम ऐसे दानी हो तो सिंहासन पर बैठो, नहीं तो पाप लगेगा।"

सिंहासन बत्तीसी - 6

उस दिन का, मुहूर्त भी निकल गया। अगले दिन राजा सिंहासन की ओर बढ़ा तो कामकंदला नाम की छठी पुतली ने उसे रोक लिया। बोली, " पहले मेरी बात सुनो।"
: ६ :
एक दिन राजा विक्रमादित्य अपनी सभा में बैठा हुआ था कि एक ब्राह्यण आया। उसने बताया कि उत्तर में एक जगंल है। उसमें एक पहाड़ है। उसके आगे एक तालाब है, जिसमें स्फटिक का एक खंभा है। जब सूरज निकलता है तब वह भी बढ़ता जाता है। दोपहर को वह खंभा सूरज के रथ के बराबर पहुंच जाता है। दोपहर बाद जब सूरज के छिपने के साथ वह भी पानी में लोप हो जाता है।
यह सुनकर राजा को बड़ा अचंभा हुआ। ब्राह्यण के चले जाने पर उसने दोनों वीरों को बुलाया और ब्राह्यण की बताई सब बात सुनाकर कहा कि मुझे उस तालाब पर ले चलो।
वीरों ने बात-की बात में उसे वहां पहुंचा दिया। राजा देखता क्या है कि तालाब का चारों ओर से पक्का घाट बना है। और उसके पानी में हंस, मुर्गाबियां चकोर, पनडुब्बी किलोल कर रही हैं। राजा बहुत खुश हुआ। इतने में सूरज निकला। खंभा दिखाई देने लगा। राजा ने वीरों से कहा कि मुझे खंभे पर बिठा दो। उन्होंने बिठा दिया। अब खंभा ऊंचा होने लगा। ज्यों ज्यों वह सूरज के रथ के बराबरा पहुंचा, राजा को गर्मी लगने लगी। जब वह सूरज के रथ के बराबर पहुंचा, राजा जलकर अंगारा हो गया। सूरज के रथवान ने यह देखा तो रथ को रोक लिया। सूरज ने झांका तो उसे जला हुआ आदमी दिखाई दिया। उसने सोचा कि जबतक मरा हुआ आदमी पड़ा है, तबतक मैं भोजन कैसे करुं। उसने अमृत लेकर राजा पर छिड़का। राजा जी उठा। उसने सूरज प्रणाम किया। सूरज ने पूछा तो उसने बता दिया कि मेरा नाम विक्रमादित्य है। सूरज ने अपना कुण्डल उतारकर राजा को दिया और उसे विदा किया।
राजा अपने नगर में लौटा। रास्ते में उसे एक गुसाई मिला। उसने कहा, ‘हे राजा ! यह कुण्डल मुझे दे दो।" राजा ने हंसकर वह कुण्डल उसे दे दिया और अपने घर चला आया।
इतना कहकर कामकुंदता बोली, "तुम ऐसे हो तो सिंहासन पर बैठो।"


शंखनाद

 
भानु चौधरी अपने गॉँव के मुखिया थे। गॉँव में उनका बड़ा मान था। दारोगा जी उन्हें टाट बिना जमीन पर न बैठने देते। मुखिया साहब को ऐसी धाक बँधी हुई थी कि उनकी मर्जी बिना गॉँव में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता था। कोई घटना, चाहे, वह सास-बहु का विवाद हो, चाहे मेड़ या खेत का झगड़ा, चौधरी साहब के शासनाधिकारी को पूर्णरुप से सचेत करने के लिए काफी थी, वह तुरन्त घटना स्थल पर पहुँचते, तहकीकात होने लगती गवाह और सबूत के सिवा किसी अभियोग को सफलता सहित चलाने में जिन बातों की जरुरत होती है, उन सब पर विचार होता और चौधरी जी के दरबार से फैसला हो जाता। किसी को अदालत जाने की जरुरत न पड़ी। हॉँ, इस कष्ट के लिए चौधरी साहब कुछ फीस जरुर लेते थे। यदि किसी अवसर पर फीस मिलने में असुविधा के कारण उन्हें धीरज से काम लेना पड़ता तो गॉँव में आफत मच जाती थी; क्योंकि उनके धीरज और दरोगा जी के क्रोध में कोई घनिष्ठ सम्बन्ध था। सारांश यह है कि चौधरी से उनके दोस्त-दुश्मन सभी चौकन्ने रहते थे।
चौधरी माहशय के तीन सुयोग्य पुत्र थे। बड़े लड़के बितान एक सुशिक्षित मनुष्य थे। डाकिये के रजिस्टर पर दस्तखत कर लेते थे। बड़े अनुभवी, बड़े नीति कुशल। मिर्जई की जगह कमीज पहनते, कभी-कभी सिगरेट भी पीते, जिससे उनका गौरव बढ़ता था। यद्यपि उनके ये दुर्व्यसन बूढ़े चौधरी को नापसंद थे, पर बेचारे विवश थे; क्योंकि अदालत और कानून के मामले बितान के हाथों में थे। वह कानून का पुतला था। कानून की दफाएँ उसकी जबान पर रखी रहती थीं। गवाह गढ़ने में वह पूरा उस्ताद था। मँझले लड़के शान चौधरी कृषि-विभाग के अधिकारी थे। बुद्धि के मंद; लेकिन शरीर से बड़े परिश्रमी। जहॉँ घास न जमती हो, वहॉँ केसर जमा दें। तीसरे लड़के का नाम गुमान था। वह बड़ा रसिक, साथ ही उद्दंड भी था। मुहर्रम में ढोल इतने जोरों से बजाता कि कान के पर्दे फट जाते। मछली फँसाने का बड़ा शौकीन था बड़ा रँगीला जवान था। खँजड़ी बजा-बजाकर जब वह मीठे स्वर से ख्याल गाता, तो रंग जम जाता। उसे दंगल का ऐसा शौक था कि कोसों तक धावा मारता; पर घरवाले कुछ ऐसे शुष्क थे कि उसके इन व्यसनों से तनिक भी सहानुभूति न रखते थे। पिता और भाइयों ने तो उसे ऊसर खेत समझ रखा था। घुड़की-धमकी, शिक्षा और उपदेश, स्नेह और विनय, किसी का उस पर कुछ भी असर नहीं हुआ। हॉँ, भावजें अभी तक उसकी ओर से निराश न हुई थी। वे अभी तक उसे कड़वी दवाइयॉँ पिलाये जाती थी; पर आलस्य वह राज रोग है जिसका रोग कभी नहीं सँभलता। ऐसा कोई विरला ही दिन जाता होगा कि बॉँक गुमान को भावजों के कटुवाक्य न सुनने पड़ते हों। ये बिषैले शर कभी-कभी उसे कठोर हृदय में चुभ जाते; किन्तु यह घाव रात भर से अधिक न रहता। भोर होते ही थकना के साथ ही यह पीड़ा भी शांत हा जाती। तड़का हुआ, उसने हाथ-मुँह धोया, बंशी उठायी और तालाब की ओर चल खड़ा हुआ। भावजें फूलों की वर्षा किया करती; बूढ़े चौधरी पैतरे बदलते रहते और भाई लोग तीखी निगाह से देखा करते, पर अपनी धुन का पूरा बॉँका गुमान उन लोगों के बीच से इस तरह अकड़ता चला जाता, जैसे कोई मस्त हाथी कुत्तों के बीच से निकल जाता है। उसे सुमार्ग पर लाने के लिए क्या-क्या उपाय नही किये गये। बाप समझाता-बेटा ऐसी राह चलो जिसमें तुम्हें भी पैसें मिलें और गृहस्थी का भी निर्वाह हो। भाइयों के भरोसे कब तक रहोगे? मैं पका आम हूँ-आज टपक पड़ा या कल। फिर तुम्हारा निबाह कैसे होगा ? भाई बात भी न पूछेगे; भावजों का रंग देख रहे हो। तुम्हारे भी लड़के बाले है, उनका भार कैसे सँभालोगे ? खेती में जी न लगे, कास्टि-बिली में भरती करा दूँ ? बाँका गुमान खड़ा-खड़ा यह सब सुनता, लेकिन पत्थर का देवता था, कभी न पसीजता ! इन माहशय के अत्याचार का दंड उसकी स्त्री बेचारी को भोगना पड़ता था। मेहनत के घर के जितने काम होते, वे उसी के सिर थोपे जाते। उपले पाथती, कुंए से पानी लाती, आटा पीसती और तिस पर भी जेठानानियॉँ सीधे मुँह बात न करती, वाक्य बाणों से छेदा करतीं। एक बार जब वह पति से कई दिन रुठी रही, तो बॉँके गुमान कुछ नर्म हुए। बाप से जाकर बोले-मुझे कोई दूकान खोलवा दीजिए। चौधरी ने परमात्मा को धन्यवाद दिया। फूले न समाये। कई सौ रुपये लगाकर कपड़े की दूकान खुलवा दी। गुमान के भाग जगे। तनजेब के चुन्नटदार कुरते बनवाये, मलमल का साफा धानी रंग में रँगवाया। सौदा बिके या न बिके, उसे लाभ ही होना था! दूकान खुली हुई है, दस-पाँच गाढ़े मित्र जमे हुए हैं, चरस की दम और खयाल की तानें उड़ रही हैं—
चल झपट री, जमुना-तट री, खड़ो, नटखट री।
इस तरह तीन महीने चैन से कटे। बॉँके गुमान ने खूब दिल खोल कर अरमान निकाले, यहॉँ तक कि सारी लागत लाभ हो गयी। टाट के टुकड़े के सिवा और कुछ न बचा। बूढ़े चौधरी कुऍं में गिरने चले, भावजों ने घोर आन्दोलन मचाया—अरे राम ! हमारे बच्चे और हम चीथड़ों को तरसें, गाढ़े का एक कुरता भी नसीब न हो, और इतनी बड़ी दूकान इस निखट्टू का कफ़न बन गई। अब कौन मुँह दिखायेगा? कौन मुँह लेकर घर में पैर रखेगा? किंतु बॉँके गुमान के तेवर जरा भी मैले न हुए। वही मुँह लिए वह फिर घर आया और फिर वही पुरानी चाल चलने लगा। कानूनदां बिताने उनके ये ठाट-बाट देकर जल जाता। मैं सारे दिन पसीना बहाऊँ, मुझे नैनसुख का कुरता भी न मिले, यह अपाहिज सारे दिन चारपाई तोड़े और यों बन-ठन कर निकाले? एसे वस्त्र तो शायद मुझे अपने ब्याह में भी न मिले होंगे। मीठे शान के ह्रदय में भी कुछ ऐसे ही विचार उठते थे। अंत में यह जलन सही न गयी, और अग्नि भड़की; तो एक दिन कानूनदाँ बितान की पत्नी गुमान के सारे कपड़े उठा लायी और उन पर मिट्टी का तेल उँड़ेल कर आग लगा दी। ज्वाला उठी, सारे कपड़े देखत-देखते जल कर राख हो गए। गुमान रोते थे। दोनों भाई खड़े तमाशा देखते थे। बूढ़े चौधरी ने यह दृश्य देखा, और सिर पीट लिया। यह द्वेषाग्नि हैं। घर को जलाकर तक बुझेगी।
यह ज्वाला तो थोड़ी देर में शांत हो गयी, परन्तु ह्रदय की आग ज्यों की त्यों दहकती रही। अंत में एक दिन बूढ़े चौधरी ने घर के सब मेम्बरों को एकत्र किया और गूढ़ विषय पर विचार करने लगे कि बेड़ा कैसे पार हो। बितान से बोले- बेटा, तुमने आज देखा कि बात की बात में सैकड़ों रुपयों पर पानी फिर गया। अब इस तरह निर्वाह होना असम्भव है। तुम समझदार हो, मुकदमे-मामले करते हो, कोई ऐसी राह निकालो कि घर डूबने से बचे। मैं तो चाहता था कि जब तक चोला रहे, सबको समेटे रहूँ, मगर भगवान् के मन में कुछ और ही है।
बितान की नीतिकुशलता अपनी चतुर सहागामिनी के सामने लुप्त हो जाती थी। वह अभी उसका उत्तर सोच ही रहे थे कि श्रीमती जी बोल उठीं—दादा जी! अब समुझाने-बुझाने से काम नहीं चलेगा, सहते-सहते हमारा कलेजा पक गया। बेटे की जितनी पीर बाप को होगी, भाइयों को उतनी क्या, उसकी आधी भी नहीं हो सकती। मैं तो साफ कहती हूँ—गुमान को तुम्हारी कमाई में हक है, उन्हें कंचन के कौर खिलाओ और चॉँदी के हिंडाले में झुलाओ। हममें न इतना बूता है, न इतना कलेजा। हम अपनी झोपड़ी अलग बना लेगें। हॉँ, जो कुछ हमारा हो, वह हमको मिलना चाहिए। बॉँट-बखरा कर दीजिए। बला से चार आदमी हँसेगे, अब कहॉँ तक दुनिया की लाज ढोवें?
नीतिज्ञ बितान पर इस प्रबल वक्तृता का जो असर हुआ, वह उनके विकासित और पुमुदित चेहरे से झलक रहा था। उनमें स्वयं इतना साहस न था कि इस प्रस्ताव का इतनी स्पष्टता से व्यक्त कर सकते। नीतिज्ञ महाशय गंभीरता से बोले—जायदाद मुश्तरका, मन्कूला या गैरमन्कूला, आप के हीन-हायात तकसीम की जा सकती है, इसकी नजीरें मौजूद है। जमींदार को साकितुलमिल्कियत करने का कोई इस्तहक़ाक़ नहीं है।
अब मंदबुद्धि शान की बारी आयी, पर बेचारा किसान, बैलों के पीछे ऑंखें बंद करके चलने वाला, ऐसे गूढ़ विषय पर कैसे मुँह खोलता। दुविधा में पड़ा हुआ था। तब उसकी सत्यवक्ता धर्मपत्नी ने अपनी जेठानी का अनुसरण कर यह कठिन कार्य सम्पन्न किया। बोली—बड़ी बहन ने जो कुछ कहा, उसके सिवा और दूसरा उपाय नहीं। कोई तो कलेजा तोड़-तोड़ कर कमाये मगर पैसे-पैसे को तरसे, तन ढॉँकने को वस्त्र तक न मिले, और कोई सुख की नींद सोये, हाथ बढ़ा-बढ़ा के खाय! ऐसी अंधेरे नगरी में अब हमारा निबाह न होगा।
शान चौधरी ने भी इस प्रस्ताव का मुक्तकंठ से अनुमोदन किया। अब बूढ़े चौधरी गुमान से बोले—क्यों बेटा, तुम्हें भी यह मंजूर है ? अभी कुछ नहीं बिगड़ा। यह आग अब भी बुझ सकती है। काम सबको प्यारा है, चाम किसी को नहीं। बोलो, क्या कहते हो ? कुछ काम-धंधा करोगे या अभी ऑंखें नहीं खुलीं ?
गुमान में धैर्य की कमी न थी। बातों को इस कान से सुन कर उस कान से उड़ा देना उसका नित्य-कर्म था। किंतु भाइयों की इस जन-मुरीदी पर उसे क्रोध आ गया। बोला—भाइयों की जो इच्छा है, वही मेरे मन में भी लगी हुई है। मैं भी इस जंजाल से भागना चाहता हूँ। मुझसे न मंजूरी हुई, न होगी। जिसके भाग्य में चक्की पीसना बदा हो, वह पीसे! मेरे भाग्य में चैन करना लिखा है, मैं क्यों अपना सिर ओखली में दूँ ? मैं तो किसी से काम करने को नहीं कहता। आप लोग क्यों मेरे पीछे पड़े हुए है। अपनी-अपनी फिक्र कीजिए। मुझे आध सेर आटे की कमी नही है।
इस तरह की सभाऍं कितनी ही बार हो चुकी थीं, परन्तु इस देश की सामाजिक और राजनीतिक सभाओं की तरह इसमें भी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता था। दो-तीन दिन गुमान ने घर पर खाना नहीं खाया। जतन सिंह ठाकुर शौकीन आदमी थे, उन्हीं की चौपाल में पड़ा रहता। अंत में बूढ़े चौधरी गये और मना के लाये। अब फिर वह पुरानी गाड़ी अड़ती, मचलती, हिलती चलने लगी।
पांडे घर के चूहों की तरह, चौधरी के धर में बच्चें भी सयाने थे। उनके लिए घोड़े मिट्टी के घोड़े और नावें कागज की नावें थीं। फलों के विषय में उनका ज्ञान असीम था, गूलर और जंगली बेर के सिवा कोई ऐसा फल न था जिसे बीमारियों का घर न समझते हों, लेकिन गुरदीन के खोंचे में ऐसा प्रबल आकर्षण था कि उसकी ललकार सुनते ही उनका सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाता साधारण बच्चों की तरह यदि सोते भी हो; तो चौंक पड़ते थे। गुरदीन उस था। गॉँव में साप्ताहिक फेरे लगाता था। उसके शुभागमन की प्रतीक्षा और आकांक्षा में कितने ही बालकों को बिना किंडरागार्टन की रंगीन गोलियों के ही, संख्याऍं और दिनों के नाम याद हो गए थे। गुरदीन बूढ़ा-सा, मैला-कुचैला आदमी था; किन्तु आस-पास में उसका नाम उपद्रवी लड़कों के लिए हनुमान-मंत्र से कम न था। उसकी आवाज सुनते ही उसके खोंचे पर लड़कों का ऐसा धावा होता कि मक्खियों की असंख्य सेना को भी रण-स्थल से भागना पड़ता था। और जहॉँ बच्चों के लिए मिठाइयॉँ थीं, वहॉँ गुरदीन के पास माताओं के लिए इससे भी ज्यादा मीठी बातें थी। मॉँ कितना ही मना करती रहे, बार-बार पैसा न रहने का बहाना करे पर गुरदीन चटपट मिठाईयों का दोनों बच्चों के हाथ में रख ही देता और स्नहे-पूर्ण भाव से कहता---बहू जी, पैसों की कोई चिन्ता न करो, फिर मिलते रहेंगे, कहीं भागे थोड़े ही जाते हैं। नारायण ने तुमको बच्चे दिए हैं, तो मुझे भी उनकी न्योछावर मिल जाती है, उन्हीं की बदौलत मेरे बाल-बच्चे भी जीते हैं। अभी क्या, ईश्वर इनका मौर तो दिखावे, फिर देखना कैसा ठनगन करता हूँ।
गुरदीन का यह व्यवहारा चाहे वाणिज्य-नियमों के प्रतिकूल ही क्यों न हो, चाहे, ‘नौ नगद सही, तेरह उधार नही’ वाली कहावत अनुभव-सिद्ध ही क्यों न हो, किन्तु मिष्टाभाषी गुरदीन को कभी अपने इस व्यवहार पर पछताने या उसमें संशोधन करने की जरुरत नहीं हुई।
मंगल का शुभ दिन था। बच्चे बड़े बेचैनी से अपने दरवाजे पर खड़े गुरदीन की राह देख रहे थे। कई उत्साही लड़के पेड़ पर चढ़ गए और कोई-कोई अनुराग से विवश होकर गॉँव के बाहर निकल गए थे। सूर्य भगवान् अपना सुनहला गाल लिए पूरब से पश्चिम जा पहुँचे थे, इतने में ही गुरदीन आता हुआ दिखाई दिया। लड़कों ने दौड़कर उसका दामन पकड़ा और आपस में खींचातानी होने लगी। कोई कहता था मेरे घर चलो; कोई अपने घर का न्योता देता था। सबसे पहले भानु चौधरी का मकान पड़ा। गुरदीन अपना खोंचा उतार दिया। मिठाइयों की लूट शुरु हो गयी। बालको और स्त्रियों का ठट्ट लग गया। हर्ष और विषाद, संतोष और लोभ, ईर्ष्या ओर क्षोभ, द्वेष और जलन की नाट्यशाला सज गयी। कनूनदॉँ बितान की पत्नी अपने तीनों लड़कों को लिए हुए निकली। शान की पत्नी भी अपने दोनों लड़कों के साथ उपस्थित हुई। गुरदीन ने मीठी बातें करनी शुरु की। पैसे झोली में रखे, धेले की मिठाई दी और धेले का आशीर्वाद। लड़के दोनो लिए उछलते-कूदते घर में दाखिल हुए। अगर सारे गॉँव में कोई ऐसा बालक था जिसने गुरदीन की उदारता से लाभ न उठाया हो, तो वह बॉँके गुमान का लड़का धान था।
यह कठिन था कि बालक धान अपने भाइयों-बहनों को हँस-हँस और उलल-उछल कर मिठाइयॉँ खाते देख कर सब्र कर जाय! उस पर तुर्रा यह कि वे उसे मिठाइयॉँ दिख-दिख कर ललचाते और चिढ़ाते थे। बेचारा धान चीखता और अपनी मात का ऑंचल पकड़-पकड़ कर दरवाजे की तरफ खींचता था; पर वह अबला क्या करे। उसका हृदय बच्चे के लिए ऐंठ-ऐंठ कर रह जाता था। उसके पास एक पैसा भ्री नहीं था। अपने दुर्भाग्य पर, जेठानियों की निष्ठुरता पर और सबसे ज्यादा अपने पति के निखट्टूपन पर कुढ़-कुढ़ कर रह जाती थी। अपना आदमी ऐसा निकम्मा न होता, तो क्यों दूसरों का मुँह देखना पड़ता, क्यों दूसरों के धक्के खाने पड़ते ? उठा लिया और प्यार से दिलासा देने लगी—बेटा, रोओ मत, अबकी गुरदीन आवेगा तो तुम्हें बहुत-सी मिठाई ले दूँगी, मैं इससे अच्छी मिठाई बाजार से मँगवा दूँगी, तुम कितनी मिठाई खाओग! यह कहते कहते उसकी ऑंखें भर अयी। आह! यह मनहूस मंगल आज ही फिर आवेगा; और फिर ये ही बहाने करने पड़ेगे! हाय, अपना प्यारा बच्चा धेले की मिठाई को तरसे और घर में किसी का पत्थर-सा कलेजा न पसीजे! वह बेचारी तो इन चिंताओं में डूबी हुई थी ओर धान किसी तरह चुप ही न होता था। जब कुछ वश न चला, तो मॉँ की गोद से जमीन पर उतर कर लोठने लगा और रो-रो कर दुनिया सिर पर उठा ली। मॉँ ने बहुत बहलाया, फुसलाया, यहॉँ तक कि उसे बच्चे के इस हठ पर क्रोध भी आ गया। मानव ह्रदय के रहस्य कभी समझ में नहीं आते। कहॉँ तो बच्चे को प्यार से चिपटाती थी, ऐसी झल्लायी की उसे दो-तीन थप्पड़ जोर से लगाये और घुड़कर कर बोली—चुप रह आभगे! तेरा ही मुँह मिठाई खाने का है ? अपने दिन को नहीं रोता, मिठाई खाने चला है।
बाँका गुमान अपनी कोठरी के द्वार पर बैठा हुआ यह कौतुक बड़े ध्यान से देख रहा था। वह इस बच्चे को बहुत चाहता था। इस वक्त के थप्पड़ उसके हृदय में तेज भाले के समान लगे और चुभ गया। शायद उसका अभिप्राय भी यही था। धुनिया रुई को धुनने के लिए तॉँत पर चोट लगाता है।
जिस तरह पत्थर और पानी में आग छिपी रहती है, उसी तरह मनुष्य के ह्रदय में भी, चाहे वह कैसा ही क्रूर और कठोर क्यों न हो, उत्कृष्ट और कोमल भाव छिपे रहते हैं। गुमान की ऑंखें भर आयी। ऑंसू की बूँदें बहुधा हमारे ह्रदय की मुलिनता को उज्जवल कर देती हैं। गुमान सचेत हो गया। उसने जा कर बच्चे का गोद में उठा लिया और अपनी पत्नी से करुणोत्पादक स्वर में बोला—बच्चे पर इतना क्रोध क्यों करती हो ? तुम्हारा दोषी मैं हूँ, मुझको जो दंड चाहो, दो। परमात्मा ने चाहा तो कल से लोग इस घर में मेरा और मेरे बाल-बच्चों का भी आदर करेंगे। तुमने आज मुझे सदा के लिए इस तरह जगा दिया, मानों मेरे कानों में शंखनाद कर मुझे कर्म-पथ में प्रवेश का उपदेश दिया हो।
-- प्रेमचंद