Saturday, May 16, 2015

भीतरी और बाहरी सम्पदा

 

एक महर्षि थे। उनका नाम था कणाद। किसान जब अपना खेत काट लेते थे तो उसके बाद जो अन्न-कण पड़े रह जाते थे, उन्हें बीन करके वे अपना जीवन चलाते थे। इसी से उनका यह नाम पड़ गया था।

उन जैसा दरिद्र कौन होगा! देश के राजा को उनके कष्ट का पता चला। उसने बहुत-सी धन-सामग्री लेकर अपने मन्त्री को उन्हें भेंट करने भेजा। मंत्री पहुंचा तो महर्षि ने कहा,

“मै सकुशल हूं। इस धन को तुम उन लोगों में बांट दो, जिन्हें इसकी जरुरत है।”

इस भांति राजा ने तीन बार अपने मंत्री को भेजा और तीनों बार महर्षि ने कुछ भी लेने से इन्कार कर दिया।

अंत में राजा स्वयं उनके पास गया। वह अपने साथ बहुत-सा धन ले गया। उसने महर्षि से प्रार्थना की कि वे उसे स्वीकार कर लें, किन्तु वे बोले, “उन्हें दे दो, जिनके पास कुछ नहीं है। मेरे पास तो सबकुछ है।”

राजा को विस्मय हुआ! जिसके तन पर एक लंगोटी मात्र है, वह कह रहा है कि उसके पास सबकुछ है। उसने लौटकर सारी कथा अपनी रानी से कही। वह बोली, “आपने भूल की। ऐसे साधु के पास कुछ देने के लिए नहीं, लेने के लिए जाना चाहिए।”

राजा उसी रात महर्षि के पास गया और क्षमा मांगी।

कणाद ने कहा, “गरीब कौन है? मुझे देखो और अपने को देखो। बाहर नहीं, भीतर। मैं कुछ भी नहीं मांगता, कुछ भी नहीं चाहता। इसलिए अनायास ही सम्राट हो गया हूं।”

एक सम्पदा बाहर है, एक भीतर है। जो बाहर है,वह आज या कल छिन ही जाती है। इसलिए जो जानते हैं, वे उसे सम्पदा नहीं, विपदा मानते हैं। जो भीतर है, वह मिलती है तो खोती नहीं। उसे पाने पर फिर कुछ भी पाने को नहीं रह जाता।

सच्चाई - हमारी बोध कथाएँ

 

हिमालय के पर्वतीय प्रदेश के कुमायूं नामक स्थान का राजा एक बार अल्मोड़े की घाटी में शिकार खेलने गया। उस समय वह स्थान घने जंगल से ढका था।

एक खरगोश झाड़ियों में से निकला। राजा ने उसका पीछा किया, किंतु अचानक वह खरगोश चीते में बदल गया और शीघ्र ही दृष्टि से ओझल हो गया।

उस आश्चर्यजनक घटना से स्तंभित हुए राजा ने पंडितों की एक सभा बुलाई और उनसे इसका अर्थ पूछा।

उन्होंने उत्तर दिया, “इसका अर्थ यह है कि जिस स्थान पर चीता दृष्टि से ओझल हुआ था, वहां आपको एक नया शहर बसाना चाहिए, क्योंकि चीते केवल उसी स्थान से भाग जाते हैं, जहां मनुष्यों को एक बड़ी संख्या में बसना हो।”

अतएव नया शहर बसाने के लिए मजदूर लोग काम पर लगा दिये गए। अंत में जमीन को कठोरता देखने के लिए एक स्थान पर उन्होंने लोहे की एक मोटी कील गाड़ी। उस समय अचानक पृथ्वी में एक हल्का-सा कंपन हो उठा।

“ठहरो!” पंडित लोग चिल्ला पड़े, “इसकी नोक सर्पराज शेषनाग की देह में धंस गई है। अब यहां शहर नहीं बनाना चाहिए।”

जब वह लोहे की कील पृथ्वी से बाहर निकाली गई तो वह वास्तव में शेषनाग के रक्त से लाल हो रही थी।

“यह तो बड़े दु:ख की बात है”, राजा बोला, “हम यहां शहर बनाने का निश्चय कर चुके हैं, इसलिए अब बनाना ही होगा।”

पंडितों ने क्रोध में आकर भविष्यवाणी की कि शहर पर कोई भारी विपत्ति आयेगी और राजा का अपना वंश भी शीघ्र ही नष्ट हो जायगा।

जमीन वहां की उपजाऊ थी और पानी भी खूब था। छ:सौ साल से अल्मोड़ा शहर उस पहाड़ पर बसा हुआ है और उसके चारों ओर फैले खेत बढ़िया फसलें पैदा करते हैं।

इस प्रकार बुद्धि रखते हुए भी वे पंडित अपनी भविष्यवाणी में गलत निकले। नि:संदेह वे सच्चे थे और उन्हें विश्वास था कि वे सत्य कह रहे हैं, किंतु लोग ऐसी गलती प्राय: करते हैं और अंध-विश्वास को वास्तविकता समझ लेते हैं।

संसार अंधविश्वासों से भरा पड़ा। सत्य को ढूंढ़ने का सबसे अच्छ तरीका यह है कि मनुष्य सदा अपने विचारों, कार्यों और वचनों में अधिकाधिक सच्चे और निष्कपट रहें, क्योंकि दूसरों को सब बातों में धोखा देना छोड़कर ही हम अपने-आपको कम-से-कम धोखा देना सीखते हैं।

Friday, May 8, 2015

सिंहासन बत्तीसी - 4

 

राजा विक्रमादित्य ने एक बार बड़ा ही आलीशान महल बनवाया। उसमें कहीं जवाहरात जड़े थे तो कहीं सोने और चांदी का काम हो रहा था। उसके द्वार पर नीलम के दो बड़े-बड़े नगीने लगे थे, जिससे किसी की नजर न लगे। उसमें सात खण्ड थे। उसके तैयार होने में बरसों लगे। जब वह तैयार हो गया तो दीवान ने जाकर राजा को खबर दी। एक ब्राह्यण को साथ लेकर राजा उसे देखने गया। महल को देखकर ब्राह्यण ने कहा, "महाराज ! इसे तो मुझे दान में दे दो।" ब्राह्यण का इतना कहना था कि राजा ने उस महल को तुंरत उसे दान कर दिया। ब्राह्यण बहुत प्रसन्न हुआ अपने कुनबे के साथ उसमें रहने लगा ।

एक दिन रात को लक्ष्मी आयी और बोली, "मैं कहां गिरुं ?" ब्राह्यण समझा कि कोई भूत है। वह डर के मारे वहां से भागा और राजा को सब हाल कह सुनाया। राजा ने दीवान को बुलाकर कहा, "महल का जितना मूल्य है, वह ब्राह्यण को दे दो।"

इसके बाद राजा स्वयं जाकर महल में रहने लगा। रात को लक्ष्मी आयी और उसने वही सवाल किया। राजा ने तत्काल उतर दिया कि मेरे पलंग को छोड़कर जहां चाहों गिर पड़ों। राजा के इतना कहते ही सारे नगर पर सोना बरसा । सवेरे दीवान ने राजा को खबर दी तो राजा ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि जिसकी हद में जितना सोना हो, वह ले ले।

इतना कहकर पुतली बोली, " महाराज ! इतना था विक्रमादित्य प्रजा का हितकारी तुम किस तरह उसके सिंहासन पर बैठने की हिम्मत करते हो?"

वह साइत भी निकल गई। अगले दिन फिर राजा सिंहासन पर बैठने को उसकी ओर बढ़ा कि पांचवी पुतली लीलावती बोली, "राजन् ! ठहरों। पहले मुझसे विक्रमादित्य के गुण सुन लो।"