Sunday, January 31, 2016

सिंहासन बत्तीसी - 7

अगले दिन जब वह ऐसा करने लगा तो कोमुदी नाम की सातवीं पुतली उसके पैरों में आ गिरी। बोली,

"जरा मेरी बात सुन लो, तब सिंहासन पर बैठना।"

: ७ :

एक दिन राजा विक्रमादित्य सो रहा था। आधी रात बीत चुकी थी। अचानक उसे किसी के रोने की आवाज सुनायी दी। राजा ढाल-तलवार लेकर, जिधर से आवाज आ रही थी, उधर चल पड़ा। चलते-चलते नदी पर पहुंचा। देखता क्या है कि एक बड़ी सुन्दर तरुण स्त्री धाड़े मार-मारकद रो रही है। राजा ने पूछा तो उसने कहा कि मेरा आदमी चोरी करता था। एक दिन कोतवाल ने उसे पकड़ लिया और सूली पर लटका दिया। मैं उसे प्यार से खाना खिलाने आयी हूं, पर सूली इतनी ऊंची है कि मेरा हाथ उसके मुंह तक नहीं पहुंच पाता।

राजा ने कहा, "इसमें रोने की क्या बात है? तुम मेरे कन्धे पर चढ़कर उसे खिला दो।"

वह स्त्री थी डायन। राजा के कन्धे पर सवार होकर उस आदमी को खाने लगी। पेट भरकर वह नीचे उतरी। राजा से बोली,"मैं तुमसे बहुत खुश हूं। जो चाहो सो मांगो।" राजा ने कहा, "अच्छा, तो मुझे अन्नपूर्णा दे दो।" वह बोली, "अन्नपूर्णा तो मेरी छोटी बहन के पास है। तुम मेरे साथ चलो, दे दूंगी।"

वे दोनों नदी के किनारे एक मकान पर पहुंचे। वहां उस स्त्री ने ताली बजाई। बहन आयी। स्त्री ने उसे सब बात बताई और कहा कि इसे अन्नपूर्णा दे दो। बहन ने हंसकर उसे एक थैली दी और कहा, ‘जो भी खाने की चीज चाहोगे, इसमें से मिल जायगी।" राजा ने खुश उसे ले लिया और वहां से चल दिया। नदी पर जाकर उसने स्नान-ध्यान पूजा-पाठ किया। इतने में एक ब्राह्यण वहां आया। उसने कहा, "भूख लगी है।" राजा ने पूछा, "पूछा, "क्या खाओगे ?" उसने जो बताया, वही राजा ने थैली में हाथ डालकर निकालकर दे दिया। ब्राह्यण ने पेट भरकर खाया, फिर बोला, "कुछ दक्षिणा भी तो दो।" राजा ने कहा, "जो मांगोगे, दूगां।" ब्राह्यण ने वही थैली मांग ली। राजा ने खुशी-खुशी दे दी और अपने घर चला आया।

पुतली बोली, "हे राजन् ! विक्रमादित्य को देखो, इतनी मेहनत से पाई थैली ब्राह्यण को देते ने लगी। तुम ऐसे दानी हो तो सिंहासन पर बैठो, नहीं तो पाप लगेगा।"

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